मुझे लिखते हुए दुख हो रहा है कि जिस हिन्दी भाषा के उत्थान एवं प्रचार के लिए केन्द्रीय सरकार की तरफ़ से बड़े-बड़े संस्थानों द्वारा करोड़ों रुपये पानी की तरह बहाये जा रहे हैं, वहीं हमारे राष्ट्रीय कार्यकर्ता हिन्दी अस्पृश्यता रोग से उतने ही ग्रस्त हैं । आज हमारे सरकारी आला नेता, सरकार और सरकारी कर्मचारी फ़र्राटेदार अंग्रेजी बोलना अपनी शान समझते हैं । इसमें कोई संदेह नहीं कि वे खद्दर पहनने लगे हैं,पर दिल में लेशमात्र भी हिन्दी के लिए जगह नहीं । किसी सभा / समिति की बैठक में चले जाइये, वहाँ तो ऐसा लगता है, जैसे वहाँ हिन्दुस्तान के लोगों की सभा नहीं बल्कि अंग्रेजों की मीटिंग चल रही हो । हिन्दी भाषाई होने के बावजूद भी हिन्दी का एक लब्ज भी व्यवहार नहीं । जो जितना फ़र्राटेदार अंग्रेजी बोलेगा, वह उतना बड़ा नेता या आदमी कहलायगा । अर्थात वे हिन्दी बोलना,अपने सम्मान को छोटा करना समझते हैं । अपने बच्चे को हिन्दी नहीं, अंग्रेजी और सिर्फ़ अंग्रेजी बोलना सिखलाते हैं । जिससे समाज में अंग्रेजों का दर्जा मिले : हिन्दुस्तानी वेशभूषा रहे,मगर दिल इंग्लिस्तानी बना रहे । पता नहीं, अंग्रेजी भाषा का यह जादू कब तक हमारे सरों पर सवार रहेगा । कब तक हम अंग्रेजी के गुलाम बने रहेंगे । इससे साफ़ पता चलता है, इन साठ सालों में भी हम राष्ट्रीयता की गहराई तक नहीं पहुँच सके हैं ।
हमारे राष्ट्र निर्माता, महात्मा गांधी को छोड़कर हमने किसी को हिन्दी के प्रचार-प्रसार पर जोर देते नहीं सुना। जब कि यह सर्व विदित रहे, जब तक हम अपनी राष्ट्रभाषा को दिल से नहीं अपनायेंगे, तब तक भारत को एक उज्ज्वल राष्ट्र के रूप में निर्माण महज एक ख्वाब होगा । हमारे उन्नत राष्ट्र की कल्पना तभी साकार होगी, जब हम जापानियों की तरह जापानी, चीनियों की तरह चीनी अर्थात अपने भावों को हिन्दी में प्रकट करेंगे । आप दुनिया के किसी भी उन्नतशील देश में जाकर देखिये, उनका देश उतना प्रगतिशील क्यों है ? कारण साफ़ है, वे लोग अपने भावों को अपनी राष्ट्रभाषा में एक –दूसरे से आदान-प्रदान करते हैं : न कि सामने वाला अंग्रेजी जाने या न जाने, उसकी चिंता छोड़कर हम फ़र्राटेदार अंग्रेजी बोलते जा रहे हैं । हम सोचते हैं, अंग्रेजी के इन लब्जों को मेरे मुँह से सुनकर ्वे कुछ समझे या न समझे; मैं हिन्दुस्तानी कम ,अंग्रेज ज्यादा हूँ,ये तो समझ ही गये होंगे । भला ऐसे में हमारे देश का उत्थान कैसे हो सकता है । आप ईरान जाइये, रूस जाइये : हर देश की अपनी भाषाएं अलग-थलग है और सभी अपनी भाषा से उतना ही प्यार करते हैं, जितना एक शिशु अपनी माँ से । जब तक हम सभी भारतवाशी अपनी भाषा के प्रति जागरूक नहीं होंगे, दिल और दिमाग से नहीं अपनायेंगे ,अपने जीव्न का अंग नहीं समझेंगे, तब तक हमारी हिन्दी भाषा ऐसे ही अपंग लड़खड़ाती, अंग्रेजी की बैशाखी के सहारे चलती रहेगी ।
कितने ही सज्जन तो बड़ी शान के साथ कहते हैं कि हिन्दी बोलना, उनके लिये थोड़ी मुश्किल होती है, पर अंग्रेजी आसान है । बड़ा से बड़ा हिन्दुस्तानी भी जब भारत- भ्रमण पर आये अंग्रेजों से अंग्रेजों से अंग्रेजी में बात करता है तो सुनकर बहुत दुख होता है । क्यॊं नहीं उसे ही हिन्दी बोलने दें ? जो नहीं बोल सकेंगे,उनका भ्रमण अधूरा रहेगा । तभी वे अपने देश वापस लौटकर हिन्दी के बारे में सोचेंगे और दोबारा आने के पहले हिन्दी सीखकर आयेंगे । आजकल विश्व के हर देश में हिन्दी सिखाने के लिए स्कूल स्थापित किया गया है,जिससे हिन्दी का प्रचार-प्रसार दूसरे देश में बढ़े । खैर अँग्रेजी में बात करना किसी हद तक क्षम्य हो सकता है, लेकिन जब दो हिन्दुस्तानी ही आपस में अँग्रेजी में बात करे,तब भी क्या यह क्षम्य होगा ? नहीं, कभी नहीं ।
अगर हिन्दुस्तानी हिन्दी लब्ज व्यवहार करने में हिचकिचाता है या इसमें अपना अपमान बोध करता है तो उसे हिन्दुस्तान में रहने का हक नहीं मिलना चाहिये । बल्कि अच्छा हो कि वे अँग्रेजों के देश में जाकर बस जायें और वहीं अपनी अँग्रेजी झाड़ते रहें । हिन्दी हमारी मातृभाषा है; अपनी मातृभाषा में दिल के भाव को प्रकट करना सहज होता है । इसलिए हमें यह नहीं भूलना चाहिये ------
’ हिन्दी हैं हम, हिन्दोस्तां हमारा है ।’
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