Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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महँगी !  क्या नभ की शम्पाओं की कड़क

ऋतु,   ग्रीष्म,    शीत   और   शरद

मनुज को स्वप्न कक्ष में करने भयभीत 

कम थे,  जो  तुम  अपनी   दुर्धर पद-

चापों  से,  धरा  मनुज  की छाती को

कंपित  करने,  विजय – ध्वज फ़हराती

अम्बर  छान   धरा पर  उतर   आई


तुमकोनहीं    पता,    तुम   नहीं    जानती

धरा  के  भूतों  के  इस  तमस  क्षेत्र में

मनुज,  जीवन   तृष्णा,  प्राण  क्षुधा औ

मनोदाह   से    क्षुब्ध,   दग्ध,    जर्जर

घृणा,  द्वेष,  स्पर्धा  से पीड़ित  पहले ही

वन    पशुओं  –सा   बिखर   चुका   है

अन्न, वस्त्र, गृह, आवागमनों के अभाव में

फ़िर  से  अहेरी   जीवन  बिता  रहा  है


आदि,  व्याधि,  बहु  रोग क्षुधित,  गिद्ध  से टूटते उस पर

राग, द्वेष, स्पर्धा, कुत्सा मुख नोचते एक दूजे  का परस्पर

ऐसे  में  तुम्हीं  बताओ,  इस   मरणोन्मुख   जगत  को 

कौन  आश्वासन देगा,  कौन उद्धार  करेगा, तुमको  छोड़कर

कौन  जाकर  खोलेगा,   स्वर्गिक  आभाओं  का  वातायण

जिससे   मनुज   मन  के   काले   तम  की   पँखुड़ियाँ

फ़िर  से  विहँस  उठे, नव  जीवन  का  सौन्दर्य   बनकर

फ़िर से जीवन, उन्नयन नूतन बना सके संतुलन ग्रहण कर



                           

ओ !         अर्थनीति-  राजनीति    की     प्रतिमा

साक्षी है इतिहास, जब- जब उतरी है तुम धरा पर

तब-तब मानव  युग का अंत हुआ है, पराभव का

मेघ,  तांडव  किया है विश्व  क्षितिज  को घेरकर

लोग  तरसे हैं,  दाने -दाने  को,  दुधमुँहे   बच्चे

रोये  हैं माँ  के  वक्ष  से  अपना  मुँह  लगाकर

सिसकियों और चित्कारों से आकाश भरा है मानव 

जीवन जीया है,शृगालों, कुकुरों से भी बदतर होकर


ओ विपथगामिनी ! निर्बन्ध, क्रूर नर्त्तन-गर्जन करना छोड़ो

अबोध   संसार  को   काल  सर्प- सा   डँसना   त्यागो

जो  ब्याज   चुकाये हैं ,युवती  की  लज्जा, वसन बेचकर 

माँ को  कब्र  में गाड़ आये हैं, रोटी के टुकड़े को  छीनकर

जरा उसकी सोचो, कहीं फ़ट न जाये माँ की छाती कब्र में

जवान  बेटे  की मौत  पर, मत  इतना  भी अन्याय करो

जाओ,  वहीं    रहो,   जहाँ  से   आई   तुम   चलकर

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