Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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चिंता करता हूँ मैं जितना
विश्व कुहर में डूब जाता हूँ उतना
सोचता हूँ, मेरी छाती से लिपटा
दर्द, जो दिन-रात मेरे गात को
शिशि–पात सा हिलाया करता था

जो हर क्षण, गिरि श्रेणी सा
मेरी आँखों में खड़ा रहता था
जिसके कौतुक क्रीड़ा के प्रबल वेग
का श्रोत, उछल-उछलकर, मेरे
प्रा्ण जल को करता था हिलकोरा

उससे कैसे कह दूँ कि, जिस आकस्मिकता के
कण से बना था मैं, उसी में फ़िर से
मिल, विलुप्त होने जा रहा हूँ आज
तुम्हारा तो न अंत, न पथ, न लक्ष्य
देकर तुमको जीवन दान, कैसे ले चलूँ साथ

नियति पर मेरा स्वल्प अधिकार नहीं
जनारण्य से दूर, जहाँ शून्य से बना
मौन, नाश विध्वंश का प्रभाव नहीं
वहाँ जाकर अपना घर बसाऊँ,आज तक
किसी मनुज को, मिला अधिकार नहीं

ऐसे भी मानव जीव न वेदी पर
परिणय हो केवल मिलन संग मिलन का
विछोह का हो कोई आधार नहीं
तब कैसे कोई, विश्वास करेगा
नियति से पाये अपने सुख पर, जो
दुख का किया कभी अवसाद नहीं

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