Dr. Srimati Tara Singh
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कविता
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कविता
डॉ. तारा सिंह
डॉ. तारा सिंह
गीत प्रेरणा
क्या है नियमन का आधार
जिंदगी
क्या दूँ, क्या है मेरे पास
पर्यावरण
भगवान महावीर
आसमां, धरती की छाया
आशा का परिहास होगा
लौटा दो वह बचपन मेरा
क्या यही हमारा हिन्दुस्तान है
अब कैसी आशा समर विजय की
आदमी तो वह अच्छा है, पर बदनाम बहुत है
जीवन- मृत्यु
जिंदगी फ़ूलों की सेज़ नहीं होती
क्या दूँ, क्या है मेरे पास
जागृति है या कोई सपना
पर्यावरण
अम्बर छोड़ चला दिवाकर
उर्मि का पाथार कैसे करेगा पार, प्रिये
एक पल भी सृष्टि का दुलार नहीं
मैं बूढ़ा पथिक इस जग का
लौटा दो वह बचपन मेरा
भगवान महावीर ( हमारे जगत पिता )
मनुज देह अवतरित हुये श्रीराम
प्रेम –प्रेम क्यों पुकार रहा रे
प्राणी भाग्य बना अशांत
कोई आकर बैठ जाती क्लांत उदास
अब कैसी आशा समर विजय की
प्राणी भाग्य बना अशांत
धूल –धुँध में अग्नि बीज बो रहा
मैं बूढ़ा पथिक इस जग का
तू आज छोड़ चला कुसुमों की छाया
ऊपर सुधाघट डलमल करता
मानवता के शत्रु
पंचानन का सपूत, मनुज
अमृत जान उसे पीती हूँ
तपोभूमि
खतम हो गया खेला
पंचतंत्र के सपूत
सच्ची श्रद्धांजलि
मिट्टी तो बेदाम बिकती
विधु हुआ है बावला
देख जग ललचा
धरा सुख में क्या रखा है
किस्मत
बची रह जाती केवल निस्सीमता
भाग्यहीन
प्रभु ! मन में आन क्यों भरा
पथहीन नभ से उतर आता
यग्य समाप्ति की वेला, धधक उठी ज्वाला
सुलगते अरमान
धरा सुख में क्या रखा है
भगवान ! तुम क्यों हो महान
कविता
प्राण – पंछी
प्रकृति और सृष्टि में कोई भेद नहीं
पथहीन नभ से उतर आता
धन - अभिमानी
धरा सुख में क्या रखा है
एक खिलौना चाहिये
क्या रखा है उस पार
मजदूरनी
तेरी आँखें क्यों भर आईं
क्या दूँ, क्या है मेरे पास
जागृति है या कोई सपना
जिन पलकों पर दुख जलजात खिला
चलता हूँ मैं कहाँ अकेला
चित्रित तुम, मैं रेखा -क्रम
कौन है यह ध्रुव ममत्व की मूर्ति
क्या है नियमन का आधार
गीत प्रेरणा
जग कहता, मैं उसे करूँ याद
बादल
नव आषाढ़
उपदेश
कूक उठी हृदयवासिनी कोकिला
तपोभूमि
पुनर्जन्म
कैसे कहूँ दिले हाल, बेरुखी पे तुली अहले–दुनिया
चाँदनी
क्या दूँ मैं उपहार
तुम कविता कुछ ऐसी लिखो
तेरी आँखें क्यों भर आईं
क्या रखा है उस पार
जिन पलकों पर दुख जलजात खिला
जीवन संध्या के सूने तट पर
तुम अमर, मैं नश्वर
धन - अभिमानी
धरा सुख में क्या रखा है
सच्ची श्रद्धांजलि
यह जीवन का ठौर नहीं
प्राण – पंछी
प्रकृति और सृष्टि में कोई भेद नहीं
विधु हुआ है बावला
विधु हुआ है बावला
शिशु
तपोभूमि
नया इतिहास
पंचानन का सपूत, मनुज
किस्मत
बची रह जाती केवल निस्सीमता
बची रह जाती केवल निस्सीमता
जागृति है या कोई सपना
जिंदगी फ़ूलों की सेज़ नहीं होती
भाग्यहीन
भाग्यहीन
तारों में रहती मेघों की प्यास
परिवर्तन
पुनर्जन्म
पर्यावरण
प्राणी भाग्य बना अशांत
एक खिलौना चाहिये
जिंदगी फ़ूलों की सेज़ नहीं होती
जागृति है या कोई सपना
झड़ते हैं पत्ते ,तो झड़ने दो
मैं अमरलोक का यात्री
मैं ही तुम्हारा त्रिलोक विजय हूँ
दिल्ली
कविता
भगवान ! तुम क्यों हो महान
मिट्टी तो बेदाम बिकती
नारी जीती विवश लाचार
भाग्यहीन
मानवता के शत्रु
स्मृति
धरा सुख में क्या रखा है
नव आषाढ़ की बूँद सी
इसे क्या कहूँ
खतम हो गया खेला
चाहते हो अगर मुझे जानना
चाहती हूँ ,मैं भी अमर हो जाऊँ
देख जग ललचा
धरा सुख में क्या रखा है
जीवन- मृत्यु
तपस्वी
ऊपर सुधाघट डलमल करता
मानवता के शत्रु
आँसू
इसे क्या कहूँ
जिंदगी
’’तुम कौन हो”
मानवता के शत्रु
स्मृति
जागृति है या कोई सपना
जिंदगी
मानवता के शत्रु
मनुज मेला क्यों लगाया
आसमां, धरती की छाया
कौन है यह ममत्व की मूर्ति
मनुज मेला क्यों लगाया
आसमां, धरती की छाया
’’तुम कौन हो”
अमृत जान उसे पीती हूँ
अरमानों में रोशनी नहीं
ऊपर सुधाघट डलमल करता
किसकी है यह आवाज
किसकी है यह आवाज
कोकिला छेड़ती जब पंचम तान
चाँदनी
जब छाता तिमिर घन
जीवन संध्या के सूने तट पर
तपोभूमि
तुझको अपना वतन याद नहीं
तुम अमर, मैं नश्वर
क्या दूँ मैं उपहार
’देशभक्त मदन मोहन मालवी’य’
नया इतिहास
सुलगते अरमान
सुरभि रहित खिलते अब फ़ूल यहाँ
सच्ची श्रद्धांजलि
शिशु
विधु हुआ है बावला
यग्य समाप्ति की वेला
यह जीवन का ठौर नहीं
यग्य समाप्ति की वेला
भाग्यहीन
भगवान ! तुम क्यों हो महान
बची रह जाती केवल निस्सीमता
प्रभु ! मन में आन क्यों भरा
यग्य समाप्ति की वेला
भाग्यहीन
पथहीन नभ से उतर आता
पंचतंत्र के सपूत
नारी जीती विवश लाचार
नदी ! तुमको मूर्च्छा क्यों नहीं आई
धरा सुख में क्या रखा है
धन - अभिमानी
दिशि-दिशि में उदासी भरी रहती
देवों का दिव्य रूप
दिन का बादल निशितम में आकर
तारों में रहती मेघों की प्यास
चाहते हो अगर मुझे जानना
चाहती हूँ ,मैं भी अमर हो जाऊँ
कवि
कवि उठ ,जाग
मजदूरनी
सृष्टि
तपस्वी
दिल्ली
पंखहीन मनुज
प्राण – पंछी
बसंत
यमुना
जिंदगी
धरती का चेहरा काला था
सिवा तुम्हारे कौन है अपना
सलिला की धारा सी तुम कौन हो
पता था , तुम बदल जाओगे
मैं कोई शिशु नहीं
संध्या
सिवा तुम्हारे कौन है अपना
सलिला की धारा सी तुम कौन हो
मैं अमरलोक का यात्री
सलिला की धारा सी तुम कौन हो
पता था , तुम बदल जाओगे
तुम कविता कुछ ऐसी लिखो
’’तुम कौन हो”
धरा सुख में क्या रखा है
पंचतंत्र के सपूत
नारी जीती विवश लाचार
धरा सुख में क्या रखा है
तपोभूमि
अमृत जान उसे पीती हूँ
अरमानों में रोशनी नहीं
चाँदनी
जब छाता तिमिर घन
नया इतिहास
परिवर्तन
पुनर्जन्म
महासेतु है नारी
अमृत जान उसे पीती हूँ
खतम हो गया खेला
कवि
पंचतंत्र के सपूत
प्रकृति, इतनी निर्मम हो सकती है
तुम कौन हो
मानव! तुम केवल पीड़ा के अधिकारी
जग कहता, मैं उसे करूँ याद
मानवता के शत्रु
स्मृति
स्मृति
मनुज मेला क्यों लगाया
कौन है यह ममत्व की मूर्ति
यात्री हूँ दूर देश का
मनुज मेला क्यों लगाया
कौन है यह ममत्व की मूर्ति
यात्री हूँ दूर देश का
मनुज मेला क्यों लगाया
जग कहता, मैं उसे करूँ याद
क्यों लौट आती मेरी प्रतिध्वनि
मानवता के विप्र
मानवता के शत्रु
स्मृति
आसमां, धरती की छाया
कौन है यह ममत्व की मूर्ति
मानव! तुम केवल पीड़ा के अधिकारी
यात्री हूँ दूर देश का
जग कहता, मैं उसे करूँ याद
क्यों लौट आती मेरी प्रतिध्वनि
मानवता के विप्र
पर्यावरण
दहन मनुज का धरम है
पंचानन का सपूत, मनुज
तुम अमर, मैं नश्वर
महासेतु है नारी
पंचतंत्र के सपूत
माँ
जीवन-मृत्यु
पंखहीन मनुज
नारी, तुम स्वयं प्रकृति हो
पंख बिना मनुज अधूरा
अब तो ठंढी हो चली जीवन की राख
मेरा प्रियतम आया है, बावन साल बाद
मेरा प्रियतम आया है
सुख का उद्गम माँ की गोद
उर्मि का पाथार कैसे करेगा पार, प्रिये
जब तक तुम सुख सीमा बने रहे
नैतिकता भर रही चीत्कार
मर्त नर को देवता कहना मृषा है
तीनों काल मुझमें है निहित
प्राणाकांक्षा
मैं बूढ़ा पथिक इस जग का
माँ! आज तुम्हारी पुण्यतिथि है
हे सारथी! रोको अब इस रथ को
महँगी
क्या यही हमारा हिंदुस्तान है
मनुज देह अवतरित हुए श्रीराम
हे सारथी! रोको अब इस रथ को
महँगी
शक की बुनियाद पर भीत
महासेतु है नारी
मानव ! तुम सबसे सुंदर
तुम अमर, मैं नश्वर
पंचानन का सपूत, मनुज
कृष्णाष्टमी
तपोभूमि
चाँदनी
जीवन संध्या के सूने तट पर
जीवन संध्या के सूने तट पर
उपदेश
पुनर्जन्म
पर्यावरण
नया इतिहास
मैं भी देखूँगी ,क्या है उस पार
क्या दूँ मैं उपहार
परिवर्तन
आँसू
ऊपर सुधाघट डलमल करता
नया इतिहास
ज्योतिषी
स्निग्धा बिछलती थी मेरे अंग से
जब छाता तिमिर घन
डोल रहा जीवन प्रशांत
कृष्णाष्टमी
महासेतु है नारी
परिवर्तन
स्निग्धा बिछलती थी मेरे अंग से
इसे क्या कहूँ
वर्षा ऋतु
हिमालय
आँसू
कवि उठ ,जाग
कवि
चाहती हूँ ,मैं भी अमर हो जाऊँ
चाहते हो अगर मुझे जानना
तारों में रहती मेघों की प्यास
दिन का बादल निशितम में आकर
दिशि-दिशि में उदासी भरी रहती
देख जग ललचा
धन - अभिमानी
नारी जीती विवश लाचार
जीवन- मृत्यु
तपस्वी
जिंदगी
जिंदगी फ़ूलों की सेज़ नहीं होती
संध्या
प्रकृति, इतनी निर्मम हो सकती है
जीवन- मृत्यु
जिंदगी फ़ूलों की सेज़ नहीं होती
जागृति है या कोई सपना
किस्मत
पंचतंत्रके सपूत
तपस्वी
जीवन- मृत्यु
जागृति है या कोई सपना
जिंदगी फ़ूलों की सेज़ नहीं होती
संध्या
’’तुम कौन हो”
मानवता के शत्रु
स्मृति
मनुज मेला क्यों लगाया
आसमां, धरती की छाया
स्मृति
कौन है यह ममत्व की मूर्ति
यात्री हूँ दूर देश का
जग कहता, मैं उसे करूँ याद
पर्यावरण
दहन मनुज का धरम है
पंचानन का सपूत, मनुज
तुम अमर, मैं नश्वर
मानव! तुम सबसे सुंदर
महासेतु है नारी
पंचतंत्र के सपूत
माँ
जीवन-मृत्यु
पंखहीन मनुज
नारी, तुम स्वयं प्रकृति हो
पंख बिना मनुज अधूरा
अब तो ठंढी हो चली जीवन की राख
मेरा प्रियतम आया है, बावन साल बाद
सुख का उद्गम माँ की गोद
उर्मि का पाथार कैसे करेगा पार, प्रिये
नैतिकता भर रही चीत्कार
मर्त नर को देवता कहना मृषा है
तीनों काल मुझमें है निहित
प्राणाकांक्षा
मैं बूढ़ा पथिक इस जग का
माँ! आज तुम्हारी पुण्यतिथि है
हे सारथी! रोको अब इस रथ को
महँगी
क्या यही हमारा हिंदुस्तान है
मनुज देह अवतरित हुए श्रीराम
कृष्णाष्टमी
तपोभूमि
उपदेश
धन - अभिमानी
भाग्यहीन
मिट्टी तो बेदाम बिकती
किस्मत
नारी जीती विवश लाचार
मिट्टी तो बेदाम बिकती
विधु हुआ है बावला
धरा सुख में क्या रखा है
सच्ची श्रद्धांजलि
हिमालय
वर्षा ऋतु
तपोभूमि
तुम अमर, मैं नश्वर
धरा सुख में क्या रखा है
किस्मत
किसकी है यह आवाज
खतम हो गया खेला
चाँदनी
कृष्णाष्टमी
जब छाता तिमिर घन
जीवन संध्या के सूने तट पर
अमृत जान उसे पीती हूँ
तपोभूमि
तुम अमर, मैं नश्वर
क्या दूँ मैं उपहार
पंचानन का सपूत, मनुज
धरा सुख में क्या रखा है
पंचतंत्र के सपूत
मानवता के शत्रु
किस्मत
तुझको अपना वतन याद नहीं
नारी जीती विवश लाचार
संध्या
मानवता के शत्रु
स्मृति
आसमां, धरती की छाया
मनुज मेला क्यों लगाया
कौन है यह ममत्व की मूर्ति
मानव! तुम केवल पीड़ा के अधिकारी
यात्री हूँ दूर देश का
क्यों लौट आती मेरी प्रतिध्वनि
मानवता के विप्र
पर्यावरण
दहन मनुज का धरम है
पंचानन का सपूत, मनुज
तुम अमर, मैं नश्वर
मानव! तुम सबसे सुंदर
पंचतंत्र के सपूत
जीवन-मृत्यु
पंखहीन मनुज
नारी, तुम स्वयं प्रकृति हो
पंख बिना मनुज अधूरा
अब तो ठंढी हो चली जीवन की राख
मेरा प्रियतम आया है, बावन साल बाद
सुख का उद्गम माँ की गोद
तपोभूमि
पंचतंत्र के सपूत
किस्मत
भाग्यहीन
यह जीवन का ठौर नहीं
मिट्टी तो बेदाम बिकती
’’तुम कौन हो”
धरा सुख में क्या रखा है
क्या दूँ, क्या है मेरे पास
पंचतंत्र के सपूत
भगवान ! तुम क्यों हो महान
प्रभु ! मन में आन क्यों भरा
तुम अमर, मैं नश्वर
कौन है यह ध्रुव ममत्व की मूर्ति
कृष्णाष्टमी
मानवता के शत्रु
जागृति है या कोई सपना
स्मृति
मनुज मेला क्यों लगाया
मानव! तुम केवल पीड़ा के अधिकारी
धरा सुख में क्या रखा है
तुझको अपना वतन याद नहीं
किसकी है यह आवाज
मानवता के शत्रु
मनुज मेला क्यों लगाया
कौन है यह ममत्व की मूर्ति
यात्री हूँ दूर देश का
जग कहता, मैं उसे करूँ याद
क्यों लौट आती मेरी प्रतिध्वनि
मानवता के विप्र
यात्री हूँ दूर देश का
जग कहता, मैं उसे करूँ याद
क्यों लौट आती मेरी प्रतिध्वनि
मानवता के विप्र
पर्यावरण
दहन मनुज का धरम है
तुम अमर, मैं नश्वर
जीवन संध्या के सूने तट पर
तपोभूमि
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