Dr. Srimati Tara Singh
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गज़ल
बलविन्द्र सिंह बालम
बलविन्द्र सिंह बालम
दोस्ती के घर जलाए किस लिए?
मिल जाते कुछ ऐसे चेहरे राहों में
देश मेरा खुशहाल रहे यह चाहत है
ना तेरा एतबार रहा अब
घर की बासी रूखी सूखी खाए मां
जो भर -भर जाम देते हैं
जुल्म आगे भड़कती ढाल है
घूमें है घर बाहर कलन्दर
पढ़ाई कर के भी मजबूरियों में सिसकते बच्चे
सोचने का डर तुम्हें ले डूबेगा
ज़ुल्म आगे भड़कती ढाल है
बिन वजह मुखड़े से मुखड़ा मोड़ कर
सर्जना के अर्थ भी बेकार होते जा रहे
फूलों की सरदारी अपने शहर में
कागजी फूलों कि हैं ये बस्तियाँ
पंच दरियाओं का दीदार
नईं उल्फत नई उम्मीद के झूले झुलाता है
किस-किस ने अम्बर को लूटा हम बतलाएंगे
एक से अगर अनेक बंदा हो जाए
बारिश में लघु सी एक इमारत है छतरी
सूरज तेरे मुखड़े का अनुयाई है
आँखों भीतर आँसू नहीं तलवारें गिरती हैं
दोस्ती के घर जलाए किस लिए?
जिस तरह भी थी जवानी बीत गई
घर की बासी रूखी सूखी खाए मां
भारत की पहचान बनाती है साडी
मैं बहारों पर लिखूंगा
संत श्री अकाल ओ चाचा
दुखड़ा हजूर आंखों का
लोगों के जो दुःख -सुख बांटे शायर है
ना तेरा एतबार रहा अब
बाहर देखा, देखा अन्दर फिर
अक्षरों के सरदार लुटेरे हो गए हैं
19 जून पिता दिवस पर
तो क्यों जाएंगें बाहर लोग
सफल बनो सम्मान मिलेगा
सफल बनो सम्मान मिलेगा
सफल बनो सम्मान मिलेगा
खुशबू का भी नशा मीठी शराब जैसा है
जिस तरह भी थी जवानी बीत गई
दर्द की भी इक कहानी
बादल की रानी आया नटखट सावन
चेतना जड़ की निशानी आदमी
टूटे वृक्ष निशानी की बात कोई ना
सुबह ऐसे दुआ के गीत गाती है हिमाचल में
सोचने का डर तुम्हें ले डूबेगा
अपने बस की बात नहीं
गलतियों गुस्ताखियों का शहर है।
खून की अक्षर जननी से इतिहास लिखाए आज़ादी
कृष्ण जन्माष्टमी पर विशेष
रिश्ते ऐसे ढल गए कहते तू क्या है?
ज़िंदगी को अर्थ सच्चे बख़्शती है पाठशाला
अम्बर के बनजारे तेरी चुनरी में
खुशबू का भी नशा मीठी शराब जैसा है
मांग में सिंदुर है तो प्यार होती चूडियां
घर-घर में है बात पहुंचाई बालम की
मुंह से कुछ ना बोल ज़माना ठीक नहीं
रिश्ते नातों में सर्वोत्तम प्यार होती लड़कियां
यह जिस्म कभी बूढा ना होता
अगर आंसूयों में रवानी ना होती
एक बढ़िया ग़ज़ल का अनुमान है
समयांतर ने निचोर लिए हैं
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ
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