Dr. Srimati Tara Singh
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गज़ल
आर० सी० शर्मा “आरसी”
आर० सी० शर्मा “आरसी”
आज मेरे हाथ में कुछ ख़त पुराने लग गए
दवा की शीशियों में जो ज़हर की बात करते हैं
बे वजह अब मुस्कुराता कौन है
सर झुकातीं मुश्किलें भी आदमी के सामने
यूं लगा दिन ज़िंदगी में शायराने आ गए
कभी इस बात का चर्चा हुआ क्या
शायरी की पलटती हवा देख कर
भरम ये परत दर परत खोलता है
तीर कब आपके सब निशाने लगे
जान दे दूं मगर खता क्या है
कभी आंसू बहाता है कभी कभी ये गीत गाता है
आ गया है अब हमें भी मुस्कुराना दोस्तों
पसंद अपनी-अपनी
दिन में चाँद निकलते देखा
बीज डाल दे फल निकलेगा
बैठे ठाले यूं ही बस...........
एक चिंगारी खोज रहा हूं राख हुए अवशेष में
सरदी में झट से दे देती अपनी गरम रज़ाई मां
दामिनी ………..
है अग्निपथ अभी अंगारों से स्नान बाकी है
ढूंढा किया मैं अक्सर परछाइयों में तुझको
जो सम्मानों के दावेदार निकले
रिश्तों की सरहदें रोक पाईं न मन
ग़म के तो हालात नहीं हैं
ज़िंदगी रेत की एक नदी बन गई
साहिलों ने हमें सूखी हुई नदी समझा
और क्या इम्तिहान बाकी है
दुआ गर पुर कशिश होतीं असर भी कारगर होते
पिता
जहां तू पानी समझ रहा है
मां
जी करता है रोज़ सुनाऊँ, लिख दूं इतने सारे गीत
ढूंढा किया मैं अक्सर परछाइयों में तुझको
हमको अपनी ही बस्ती में, वीरानापन लगता है
अपनी ही सरहद में थे
अब ये मौसम बरगलाने लग गए
काली कजराई रातों में भोर के पल ढूँढा करता हूँ
राह चुनने का हमें जब बोध होगा
मुझको बेटी याद आती है
कहीं और चल ज़िन्दगी
सितम भी खूब करता है,करम भी खूब करता है
मेरे शब्दों को मैंने प्रेरणा के स्वर दिए तो हैं
तिमिर से लड़ते दीपक का अथक विश्वास देखा था
न जाने अब क्यूं मेरे साथ मेरा मन नहीं जाता
इतना सुन्दर तन-मन पाया ,इससे दुनियांदारी मत कर
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ
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