Dr. Srimati Tara Singh
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गज़ल
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गज़ल
अस्तित्व
अस्तित्व
जब खिज़ां आई कोई किस्सा अधूरा रह गया
जो बिछाये राह में तुमने मेरी
तमन्ना थी तो मुझको भी रिवाज़ों से बगावत की
मेरी तन्हाइयों से आपको कैसी शिकायत है
सांसें हैं तेज़ ज़िंदगी से भागता लगे
वतन की राह चलने वालों का इतना निशां होगा
वो नज़रों में गिरा सा लग रहा है
ग़ज़ल बन कर मेरे दिल में ठिकाना ढूंढ लेता है
अभी तुम याद आते हो कोई फिर याद आएगा
मैं तुमसे दूर जाता हूँ मगर ये खींच लाती हैं
मुझे हर इक पहर बस दोपहर का गम सताता है
बड़ा शातिर नज़र है दिल के अंदर झांक लेता है
मैं अच्छा भी था और मैं सच्चा भी था
मेरे ख़यालों में खुद को शुमार करता है
बेहयाई का धुआँ है इस कदर फैला हुआ
दिल मेरा यूं भी कभी बेखयाल होता है
पढ़ के अबके खत हमारा वो किनारा कर रहा
हजारों आंधियां आयें मगर दिल को खुला रखना
जमाने भर पे ज़ख़्मों को कभी ज़ाहिर नहीं करते
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ
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