Dr. Srimati Tara Singh
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गज़ल
प्रणव मिश्र'तेजस'
प्रणव मिश्र'तेजस'
वही रावण-विभीषण-राम सबके मन में बसते हैं
जिंदगी कुहासे में छिप न जाये कहीं
आग बस्ती में लगे है तब नज़ारा देखिये
साहब !!! गरीबी टेकती है
मजहबों के नाम पर ही देश जब बटने लगा
अब अरे साँपो सुनो चुप ,जीभ कटनी चाहिए
कभी उन्माद में बैठे कभी अवसाद में बैठे
इश्क एक फरेबी चाल
बदलाव
बहुत टूटे बहुत रोये इरादे कह न पाये थे
सिक्के की दुनिया
शिव आराधना
बदलते लोग अक्सर ही बदलना उनकी फितरत है
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ
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