Dr. Srimati Tara Singh
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कविता
डॉ. श्रीमती तारा सिंह
डॉ. श्रीमती तारा सिंह
चाहती हूँ ,मैं भी अमर हो जाऊँ
उस पथ को अश्रुजल से पखार
कवि
किस ग्रीवा में धरूँ विजय हार
कौन है यह ध्रुव ममत्व की मूर्ति
चाहती हूँ ,मैं भी अमर हो जाऊँ
तब क्षार देगा मेरा पता
नारी जीती विवश लाचार
पथहीन नभ से उतर आता
भाग्यहीन
मनुज मेला क्यों लगाया
मानव ! तुम केवल पीड़ा के अधिकारी
मानवता के विप्र
चलता हूँ मैं कहाँ अकेला
अक्षय प्रकाश से दीन मनुज
आशा का परिहास होगा
कूक उठी हृदयवासिनी कोकिला
कौन है, यह हठी पुजारन
आप यूँ न मुँह मोड़िये
आओ प्रिये आज बठो मेरे पस
बुधि से लाहू बलवान निकला
दलितों पर अत्याचार
भ्रामित मनुज
आ रहा है गाँधी फिर से
भव मानस का मिलन तीर्थ
मेरी पीड़ा रहे आबाद
पार्टी का रुआब
कोई आकर बैठ जाती क्लांत उदास
अरमानों में रोशनी नहीं
इसे क्या कहूँ
उपदेश
ऊपर सुधाघट डलमल करता
झंझा में अलक जाल बन रहती वहीं
जहाँ तप रहे, व्योम भूतल
काँटों से सेवित है मानवता का फ़ूल यहाँ
कोकिला छेड़ती जब पंचम तान
खतम हो गया खेला
जब छाता तिमिर घन
जीवन संध्या के सूने तट पर
ज्योति
आसमां, धरती की छाया
यात्री हूँ दूर देश का
मानवता के विप्र
विधु हुआ है बावला
स्निग्धा बिछलती थी मेरे अंग से
मैं ही तुम्हारा त्रिलोक विजय हूँ
पंचतंत्र के सपूत
धरा सुख में क्या रखा है
सच्ची श्रद्धांजलि
मिट्टी तो बेदाम बिकती
किस्मत
दिल्ली
देशभक्त मदन मोहन मालवीय
आज का कश्मीर
जीवन- मृत्यु
एक कवि की मृत्यु
अश्रु से भीगे आँचल पर सब कुछ धरना होगा
उर्मि का पाथार कैसे करेगा पार, प्रिये
उसकी एक किलक से गूँज उठी कुटिया मेरी
एक पल भी सृष्टि का दुलार नहीं
दीपावली का त्योहार
दीप्ति ही तुम्हारी सौन्दर्यता है
मेरा प्रियतम आया है बावन साल बाद
यह कैसा त्योहार
आ राह है गांधी फेरी से
यहाँ एक कण भी सजल आशा का नहीं
हिन्द है वतन हमारा, हम हिन्द के पुजारी
तुम्हारी यादों की स्मृति
बसंत के स्वागत में
देव विभूति से मनुष्यत्व का यह पद्म खिला
विधवा
गंगा
क्या यही हमारा हिन्दुस्तान है
बादल
मानवता के शत्रु
कारवाँ आगे निकल जा रहा
धरा पर आया है वसंत
देखो ! मिलने खड़ा है कोई अतिथि
मानव ! तुम सबसे सुंदर
महासेतु है नारी
अक्षय प्रकाश से दीन मनुज
धरा सुख में क्या रखा है
किस्मत
चाहते हो अगर मुझे जानना
भगवान ! तुम क्यों हो महान
पंचतंत्र के सपूत
नारी जीती विवश लाचार
तिमिर लेती जब हिल्लोर
पंखहीन मनुज
पंखहीन मनुज
बसंत
मैं अमरलोक का यात्री
तुम कविता कुछ ऐसी लिखो
जागृति है या कोई सपना
जागृति है या कोई सपना
जग कहता, मैं उसे करूँ याद
क्या है नियमन का आधार
तीनों काल मुझमें निहित
कौन है यह ध्रुव ममत्व की मूर्ति
ऊपर सुधाघट डलमल करता
पंचभूत का मिश्रण यह जीवन
हिन्द है वतन हमारा, हम हिन्द के पुजारी
इसे न मैं बेचती, न ही लगाती उधार
उर्मि का पाथार कैसे करेगा पार, प्रिये
क्या यही हमारा हिन्दुस्तान है
चित्रित तुम, मैं रेखा -क्रम
चित्रित तुम, मैं रेखा -क्रम
धरा पर आया है वसंत
पर्यावरण
प्राणाकांक्षा
मुझे मेरा गाँव याद आ गया
मर्त नर को देवता कहना मृषा है
बसंत के स्वागत में
भेज रहा हूँ प्रणय निमंत्रण
देव विभूति से मनुष्यत्व का यह पद्म खिला
गंगा
चित्रित तुम, मैं रेखा -क्रम
चित्रित तुम, मैं रेखा -क्रम
तू आज छोड़ चला कुसुमों की छाया
जग -जीवन के विष -घट को नित पीनेवाली
पंचानन का सपूत, मनुज
क्यों छलक रहा नयन मेरा
जागृति है या कोई सपना
हिन्द है वतन हमारा
तुम्हारी यादों की स्मृति
रोती हैं सोच-सोचकर मेरी कल्पनाएँ
तीनों काल मुझमें निहित
प्राणाकांक्षा
माँ ! आज तुम्हारी पुण्यतिथि है
लौटा दो वह बचपन मेरा
मन तू जरा हौले-हौले डोल
प्रभु ! मन में आन क्यों भरा
यग्य समाप्ति की वेला, धधक उठी ज्वाला
यह जीवन का ठौर नहीं
विधु हुआ है बावला
उस पथ को अश्रुजल से पखार
तारों में रहती मेघों की प्यास
दिन का बादल निशितम में आकर
दिशि-दिशि में उदासी भरी रहती
नव आषाढ़ की बूँद सी
नदी ! तुमको मूर्च्छा क्यों नहीं आई
बची रह जाती केवल निस्सीमता
भाग्यहीन
देख जग ललचा
होली
अमृत जान उसे पीती हूँ
इसे क्या कहूँ
उपदेश
कवि उठ ,जाग
किसकी है यह आवाज
खतम हो गया खेला
चाँदनी
कृष्णाष्टमी
ज्योतिषी
तपोभूमि
तुम अमर, मैं नश्वर
नया इतिहास
परिवर्तन
क्या दूँ मैं उपहार
देशभक्त मदन मोहन मालवी’य
जीवन संध्या के सूने तट पर
आँसू
मजदूरनी
मैं अमरलोक का यात्री
प्राण – पंछी
प्राणों की यमुना उमड़ आती
पंखहीन मनुज
प्रकृति और सृष्टि में कोई भेद नहीं
पता था , तुम बदल जाओगे
तेरी आँखें क्यों भर आईं
तुम कविता कुछ ऐसी लिखो
तपस्वी
डोल रहा जीवन प्रशांत
एक कवि की मृत्यु
एक खिलौना चाहिये
कवि
कविता
जब तृष्णा भरती होगी गर्जन
क्या दूँ, क्या है मेरे पास
क्या रखा है उस पार
क्यों छलक रहा नयन मेरा
जागृति है या कोई सपना
जिंदगी
जिन पलकों पर दुख जलजात खिला
झड़ते हैं पत्ते ,तो झड़ने दो
कोयल काली
वीरगाथा
हम विहग चिर क्षुद्र
वहीं है शास्वत शोभा का उपवन
वह कौन है
वटवृक्ष
क्या यही हमारा हिन्दुस्तान है
अम्बर छोड़ चला दिवाकर
जिसके लिए लगाती हूँ अश्रु की हाट
जो बिना स्पर्श ही पुलकित करता था मुझको
पर्यावरण
देख तुम्हारी छवि साकार, भरूँगी माँग
तू आज छोड़ चला कुसुमों की छाया
तीनों काल मुझमें निहित
मनुज देह अवतरित हुये श्रीराम
महँगी
प्राणों की यमुना उमड़ आती
भगवान महावीर
लौटा दो वह बचपन मेरा
मैं बूढ़ा पथिक इस जग का
मेरी ही व्यथा-सिक्त चितवन जगती का है स्पंदन
मन तू जरा हौले-हौले डोल
प्रेम –प्रेम क्यों पुकार रहा रे
प्राणी भाग्य बना अशांत
प्राणाकांक्षा
धूल –धुँध में अग्नि बीज बो रहा
सुनहली किरणें चूमती पुष्प-पत्रों का जब अधर
विजयादशमी
अम्बर छोड़ चला दिवाकर
अब कैसी आशा समर विजय की
हिन्द है वतन हमारा, हम हिन्द के पुजारी
वह ओपहीन तो था
रोती हैं सोच-सोचकर मेरी कल्पनाएँ
जहाँ तप रहे, व्योम भूतल
तुम्हारी यादों की स्मृति
पंचभूत का मिश्रण यह जीवन
पहले ही दुनिया थी अच्छी
माँ बीत जायेंगे तुम्हारे बचे–खुचे दिन चार
आओ हम धरा को स्वर्ग बना लें
किसकी स्मृति शूल सदृश साल रही
किसने तोड़ा है तुम्हारा दीर्घ विश्वास
अगर जन्म उत्सव है, तो मृत्यु महापर्व
अतीत बड़ा विचित्र होता
अपना प्रेमास्पद चित्र चित्रित कर गया
भू के मौन भीटे पर जी नहीं लगता मेरा
अपनों ने बिंधा था मेरे वक्ष को
अब जीने से ऊब चुके हैं प्राण मेरे
आग के गोले गिरे , अंगारे लहके
इतना तीखा हलाहल कभी नहीं पीया था
इस मर्त्तलोक में क्या धरा है
किसान चिर पवित्र होकर भी घृणा से पालित क्यों
जाग गई अपलक नयनों की भूखमरी प्यास
तुम्हारे इशारे पर नर-स्वप्नों की दुनिया डोलती
निखिल देवों का देवता है कौन
नित देखता हूँ फिर भी प्राण नहीं अघाता
अब परिरंभ मुकुल में रहता हूँ बंदी अलि-सा
माँ की ममता
मिला न कभी चैन का एक पल
मुट्ठी में भरकर लाई हूँ अपने भविष्य की राख
मेरी ही व्यथा-सिक्त चितवन जगती का है स्पंदन
मैं जीर्ण तन, विकल वक्ष संस्कृति हूँ
मैं भरूँगा तुममें वह अमिट रंग
यज्ञ समाप्ति के बाद भी धधक उठती ज्वाला
यह प्रेम शब्द तुम्हारा घिस गया
वो है हमारा हिमालय
सभ्यता के रुधिर से निकली
समझ न सका नियति नटी का यह दावँ -पेंच
आओ हम धरा को स्वर्ग बना लें
किसकी स्मृति शूल सदृश साल रही
किसने तोड़ा है तुम्हारा दीर्घ विश्वास
जब से चक्षु मिलन हुआ तुमसे
प्रेम रोग
फिर भी तुमसे मिलने की प्रतीक्षा
भू के मौन भीते पर जी नहीं लगता मेरा
आज वही विष छलक रहा है बनकर मदिरा
जब जागना था मुझे तब मैं सो गई
डूब गई जो चाँदनी, कभी यहीं लहराया करती थी
तम की धार पर डोलती जगती की नौका
तुम सोओ, मैं लोरी गाऊँ
दुख अतिथि का चरण धो - धोकर पीती रहो
मेरे भाग्य गगन पर दुख रहता सदा आच्छादित
यह जग विस्मय से हुआ है निर्मित
यह धुआँ नया नहीं कुछ पहले से
वहाँ चेतना बहती काल के आदि रूप को छूकर
व्यर्थ होगा अतल शून्य को छूने जाना
स्नेह मनुष्य का अमूल्य आभूषण है
आँखों की खिड़की से देखता प्राण विहग
महोदधि लहराता था जहाँ
आग के गोले गिरे, अंगारे लहके
सबके जीवन की क्षण-धूलि सुरक्षित रहे
आँखों से बरसी,गरज-गरजकर
जब तक तुम सुख सीमा बने रहे
सुख का उदगम माँ की गोद है
जग कहता,मैं उसे करूँ याद
ज्योति
माँ और सन्तान का रिश्ता
यही है वह मदिरालय
आदम का बेटा आदम ही कहलायेगा
आत्मा संग रिश्ते भी मैले हो गये
आज का कश्मीर
संस्कृति और सम्प्रदाय
सुयश का भिक्षु , सिंधु
सरु जीवन मरीचिका का सुख एक प्यास है
मन तू जरा हौले-हौले डोल
मनुज देह अवतरित हुये श्रीराम
धूल –धुँध में अग्नि बीज बो रहा
जग -जीवन के विष -घट को नित पीनेवाली
हमारे प्रिय बापू
किसान के घर अँधेरा क्यों
तुम्हारा यह स्वर्ण विहान कहाँ है आली
बेटी होती पराया धन
सृष्टि का होकर भी मैं सृष्टि का नहीं
दीप्ति ही तुम्हारी सौन्दर्यता है
विजयादशमी
कृष्णाष्टमी
होली
मेरा प्रियतम आया है बावन साल बाद
उषा रानी
आँखों की खिड़की से देखता प्राण विहग
तरसा करते थे जो मुझे देखने सालों भर
नारी तुम स्वयं प्रकृति हो
तुम्हारी यादों की टीस
पंख बिना मनुज अधूरा
वृद्ध पद्मासन ह्रदय अरविंद मुरझा जाता है
सरु जीवन मरीचिका का सुख एक प्यास है
आओ प्रिये ! बैठो मेरे पास
लोग मुझे कवि नहीं मानते
दीप्ति ही तुम्हारी सौन्दर्यता है
स्वप्न छाया है परम विभा की
सत्य-अहिंसा के पुजारी
बुद्धि से लहू बलवान निकला
विरक्ति के भर से जिंदगी जब थक जाती है
तुमने छीन लिया मेरे ह्रदय पद्म को
मेरे प्राणों का प्राण बनकर किए रहो प्रवेश
चिंता करता हूँ मैं जितना
जिन नयनों से देखा था उदयांचल की उषा
ऐसा सुमन कुमार हूँ मैं
अब तो ठंढी हो चली जीवन की राख
आ रहा है गाँधी फिर से
शुष्क पत्र -सा लेता हुआ कौन है यह मनुज
मरु प्रांत में कौन उसे जला गया
जिंदगी तुम जीती , मैं हार गई
अब रजनी में भी खिली रहूँ किस आस पर
प्रकृति और सृष्टि में कोई भेद नहीं
तुम बिन कौन बनेगा नाविक
पीताआया है मनुज, जिंदगी का कड़वा हालाहल
धूप-छाँह के रंग-रेती पर अंकित यह जीवन
दोपहरिया में भी चाँदनी बिछी होती थी
बसरा गुलाब के गंधों से ह्रदय वासित होता रहता है
दलितों पर अत्याचार , कैसा यह हिन्दू समाज
शून्य में बसा उस नगर का नाम है क्या
पल भर ठहर कर देख लूँ ईश्वर का खजाना
कौन है यह महाकाल
स्मरण हो आता है बचपन मेरा
यहाँ काँटे हैं अधिक, फूल हैं कम
हम और हमारा देश
सुख को सीमित मत रखो, इसे विकसने दो
ह्रदय भाव का सुंदर सरोज तुम्हीं से खिलता यहाँ
तुम्हारे कर्ज का मैंने पाई-पाई चुका दिया
जब चला जाता वह दृग -सीमा से दूर
जीत सदा खड़ी रहती आत्मा के पक्ष
मतवाली बयार
लो आ गई आज फिर उसकी याद
बड़े भाग्य से मिलते हैं जग में सच्चे मित्र
दुःख की रजनी बीच खिलता सूर्यकांत
मेरा बीता अतीत कोई सपना था
केवल सत्य को रखता है स्वयं से दूर
नारी तुम सभी फूलों में सुंदर
नीरवता में भी दौड़ता रहता महाज्योति की रेखा बनकर
उठो, जागो, करी जीवन-संघर्ष
अगर जन्म उत्सव है, तो मृत्यु महापर्व
अतीत बड़ा विचित्र होता
अपना प्रेमास्पद चित्र चित्रित कर गया
भू के मौन भीटे पर जी नहीं लगता मेरा
अपनों ने बिंधा था मेरे वक्ष को
अब जीने से ऊब चुके हैं प्राण मेरे
आग के गोले गिरे , अंगारे लहके
इतना तीखा हलाहल कभी नहीं पीया था
इस मर्त्तलोक में क्या धरा है
किसान चिर पवित्र होकर भी घृणा से पालित क्यों
जग हँसा,भाग्य ने दिया ताली
मेरी जीवन -घाटी में हुई न स्वाति की वर्षा
जाने वाले लौटकर नहीं आते
ह्रदय बीच लगी हुई थी आग
हम उड़ आते मिथ्या पंख पसार
पद्मश्री सोहनलाल द्विवेदी की याद में
देखा न मैंने वह देश कभी
दया श्रोत से घेरकर बहती स्वर्ग गंगा वहाँ
परदेशी ! क्या रखा है इस शहर में
सुरभि खोजता फिरता कस्तूरी बन
भू-राज में लिपटा रहता होगा प्रकाश
नव ज्योति की आशा लिए कौन है यह देवी
कहाँ से मिला तुमको, यह रूप तुम्हारा
एक दीप जला लेना
प्रिये ! क्या तुम यही बताने आई हो
मानव दीखता लुटा हुआ सा
यौवन होता क्षणिक छलना
कल्पना
पिता
चमेली क्या याद है तुमको
धरती से स्वर्ग तुम्हारा है बहुत दूर
मेरा बीता कल
मेरा बेटा आज आ रहा है घर
दीपक
गाँधी
सबके जीवन की क्षण-धूलि सुरक्षित रहे
यहाँ एक कण भी सजल आशा का नहीं
सौम्य को बाहर निकालकर, प्रलयकेतु फहराता
उसकी एक किलक से गूँज उठी कुटिया मेरी
एक पल भी सृष्टि का दुलार नहीं
जब तक तुम सुख सीमा बने रहे
जीवन सफर का यह कौन सा मोड़ आया
जो ज्वलित उर में झंकृतियाँ भर सके
मर्त नर को देवता कहना मृषा है
एक पल भी सृष्टि का दुलार नहीं
मुझे, मेरा भविष्य बताना
सौम्य को बाहर निकालकर , प्रलय केतु फहराता
मांसल रज से हो रहा है मिट्टी का नव-नव निर्माण
इसे न मैं बेचती, न ही लगाती उधार
मुझे मेरा गाँव याद आ गया
उर्मि का पाथार कैसे करेगा पार, प्रिये
सब के जीवन की क्षण-धूलि सुरक्षित रहे
निस्सीमता की नीलिमा में तुम कौन हो
पारिजात धूलि बन रहते थे बिछे
चिर बसंत का उद्गम पतझड़ होता
अग्नि हास गुंजन करता अम्बर के रन्ध्र-रन्ध्र में
यह जग केवल स्वप्न असार
अग्नि हास गुंजन करता
आओ ! हम सब बैठें मिल के
सुख का उद्गम माँ की गोद
नैतिकता भर रही चीत्कार
कंकड़ को शंकर बनकर जीने दो
ईमानदार दर-दर की ठोकरें खाता
शांति का उल्लास केंद्र यहीं है
दीपावली का त्योहार
दुनिया एक धर्मशाला
सरोवर किनारे कंठ जलता रहा
सारी जगती निरीहता के संबल में बँधी रहती
तुम्हारे सिवा कौन
उसका रूप अरूप है, माया है अनंत
तुम्हारा अभय अवलंब लेकर घूमती थी मैं निर्विवाद
मेरा दिल भी कहता मैं भी सजूं सँवरू
देखा न कभी धरती के ईश्वर को मुड़कर
उस विधाता को मेरा शत शत प्रणाम
किसने अपनी शोणित धर से धरती माँ को धोया
श्रीमती अमृता प्रीतम जी
कब मेरे प्राणों के हेमकुंड से उमड़ी यमुना
प्रिये ! मत हो इतना उदास
कौवे ! तुम बहुत हठी हो
पिता
हिन्द है वतन हमारा, हम हिन्द के पुजारी
पंचभूत का मिश्रण यह जीवन
पहले ही दुनिया थी अच्छी
जहाँ तप रहे, व्योम भूतल
अब नारी का जग नर से पृथक नहीं
चिता सब कुछ नहीं जला पाती
जीवन संध्या ढल आई देखो
अब मनुज लोक का क्या होगा
ऋतुपति का कुसुमोत्सव घर वहीँ है
परिधि-परिधि में घूमता हूँ मैं
नक्षत्र लोक सा तुम्हारा नयन नीलाकाश
जीवन रेती पर देखा,सुंदर मुखाकृति
काँटों से सेवित है मानवता का फूल यहाँ
एक धार में जग-जीवन बहता
जहाँ ताप रहे, व्योम भूतल
तारापथ में पग ज्योति झलकती उसकी
देख जग ललचा
विधु हुआ है बावला
सच्ची श्रद्धांजलि
धन अभिमानी
जिंदगी
तुम और अधिक आते हो याद
कवि
तुम मुझमें हो, मैं तुमसे हूँ
बदली कुछ तो कहो मुझसे
यह कैसी मज़बूरी
मृत्यु अमर है
दो पल की जिन्दगी
जब हम न होंगे
मधुमास
ढूढ़ रही हो किस समस्या का निदान
अर्द्ध खिले पद्म सी तहती हो खिली
दुनिया प्रकृति से नित दूर जा रही
परिधि-परिधि में घूमता हूँ मैं
ओ ! मानवता के विप्र
माँ बीत जायेंगे तुम्हारे बचे-खुचे दिन चार
मेरे अंतर के मृदु अभिनव
शांत अभय हो जाता अंतर
वहीं है शाश्वत शोभा का उपवन
तम्हारी यादों की स्मृति
अब इस मनुज लोक का क्या होगा
एक धार में जीवन बहता
ऋतुपति का कुसुमोत्सव घर वहीँ है
जीवन रेती पर देखा, सुन्दर मुखाकृति
काँटों से सेवित है मानवता का फूल यहाँ
एक धर में जग जीवन बहता
मिट्टी तो बेदाम बिकती
चाहते हो अगर मुझे जानना
कहां चला गया मेरा वह सपना अनमोल
रोती हैं सोच-सोच कर मेरी कल्पनाएँ
संध्या
अमृत जान उसे पीती हूँ
पंखहीन मनुज
आँसू
जिंदगी फ़ूलों की सेज़ नहीं होती
मैं अमरलोक का यात्री
जागृति है या कोई सपना
एक खिलौना चाहिये
बसंत
पंखहीन मनुज
सलिला की धारा सी तुम कौन हो
मैं ही तुम्हारा त्रिलोक विजय हूँ
प्रकृति और सृष्टि में कोई भेद नहीं
मैं अमरलोक का यात्री
एक कवि की मृत्यु
कोयल काली
तपस्वी
पुनर्जन्म
माँ आती है तुम्हारी बहुत याद
तुम कौन हो
प्रकृति इतनी निर्मम हो सकती है
’’तुम कौन हो”
देशप्रेमी तरूण के प्रति मेरे हृदयोदगार
अतीत बड़ा विचित्र होता
इस मर्त्तलोक में क्या धरा है
प्रेम रोग
जब से चक्षु मिलन हुआ तुमसे
प्रकृति, इतनी निर्मम हो सकती है
संध्या
आँखों से बरसी, गरज-गरजकर
आँखों से बरसी, गरज-गरजकर
गाँधी
जग हँसा, भाग्य ने दिया ताली
आँसू
क्यों काँप रहा तुम्हारा तन
तज दो अपने तप का काल
तपोभूमि
डूबअमर हो जाऊँगा
तज दो अपने तप का काल
दिल्ली
दीप्ति ही तुम्हारा सौन्दर्य है
बसंत
सृष्टि
मैं अमरलोक का यात्री
देखो ! मिलने खड़ा है कोई अतिथि
डूब गई जो चाँदनी, कभी यहीं लहराया करती थी
महँगी
चिंता करता हूँ मैं जितना
गाँधी
प्राणों की यमुना उमड़ आती
तज दो अपने तप का काल
पर्यावरण
महँगी
महासेतु है नारी
पंचानन का सपूत, मनुज
तुम अमर, मैं नश्वर
पुनर्जन्म
स्निग्धा बिछलती थी मेरे अंग से
उपदेश
चाँदनी
डोल रहा जीवन प्रशांत
संध्या
अमृत जान उसे पीती हूँ
कोकिला छेड़ती जब पंचम तान
खतम हो गया खेला
जीवन संध्या के सूने तट पर
तुझको अपना वतन याद नहीं
क्या दूँ मैं उपहार
नारी जीती विवश लाचार
पथहीन नभ से उतर आता
मिट्टी तो बेदाम बिकती
नारी जीती विवश लाचार
यह जीवन का ठौर नहीं
विधु हुआ है बावला
क्या दूँ, क्या है मेरे पास
क्या रखा है उस पार
आज का कश्मीर
डूबअमर हो जाऊँगा
एक कवि की मृत्यु
एक खिलौना चाहिये
क्या दूँ, क्या है मेरे पास
क्या रखा है उस पार
क्यों छलक रहा नयन मेरा
जब तृष्णा भरती होगी गर्जन
जिंदगी फ़ूलों की सेज़ नहीं होती
जिंदगी
झड़ते हैं पत्ते ,तो झड़ने दो
डोल रहा जीवन प्रशांत
तुम कविता कुछ ऐसी लिखो
तेरी आँखें क्यों भर आईं
देख जग ललचा
दिशि-दिशि में उदासी भरी रहती
एक खिलौना चाहिये
कण
कोयल काली
क्या रखा है उस पार
पंखहीन मनुज
पता था , तुम बदल जाओगे
पंचानन का सपूत, मनुज
मानव ! तुम सबसे सुंदर
किस्मत
भाग्यहीन
भाग्यहीन
किस ग्रीवा में धरूँ विजय हार
कौन है यह ध्रुव ममत्व की मूर्ति
क्या है नियमन का आधार
क्या है नियमन का आधार
अक्षय प्रकाश से दीन मनुज
स्मृति
सुयश का भिक्षु , सिंधु
मानवता के शत्रु
मानवता के विप्र
धरा पर आया है वसंत
कृष्णाष्टमी
तीनों काल मुझमें निहित
तुम बिन दिवाकर आभाविहीन
आसमां, धरती की छाया
उपदेश
कूक उठी हृदयवासिनी कोकिला
क्यों लौट आती मेरी प्रतिध्वनि
अक्षय प्रकाश से दीन मनुज
गीत प्रेरणा
तब क्षार देगा मेरा पता
मनुज मेला क्यों लगाया
मानव ! तुम केवल पीड़ा के अधिकारी
प्राण – पंछी
'’प्राणों की यमुना उमड़ आती”
जागृति है या कोई सपना
जिंदगी फ़ूलों की सेज़ नहीं होती
जिंदगी
धरा सुख में क्या रखा है
प्रभु ! मन में आन क्यों भरा
चाहते हो अगर मुझे जानना
किस्मत
नदी ! तुमको मूर्च्छा क्यों नहीं आई
प्रभु ! मन में आन क्यों भरा
भगवान ! तुम क्यों हो महान
बची रह जाती केवल निस्सीमता
विधु हुआ है बावला
सुलगते अरमान
शिशु
मजदूरनी
प्राण – पंछी
प्रकृति, इतनी निर्मम हो सकती है
चाहती हूँ ,मैं भी अमर हो जाऊँ
आशा का परिहास होगा
किस ग्रीवा में धरूँ विजय हार
तब क्षार देगा मेरा पता
मानवता के शत्रु
ऊपर सुधाघट डलमल करता
स्मृति
मनुज मेला क्यों लगाया
आसमां, धरती की छाया
कौन है यह ममत्व की मूर्ति
मानव! तुम केवल पीड़ा के अधिकारी
यात्री हूँ दूर देश का
जग कहता, मैं उसे करूँ याद
क्यों लौट आती मेरी प्रतिध्वनि
मानवता के विप्र
पर्यावरण
दहन मनुज का धरम है
पंचानन का सपूत, मनुज
तुम अमर, मैं नश्वर
मानव! तुम सबसे सुंदर
महासेतु है नारी
पंचतंत्र के सपूत
माँ
जीवन-मृत्यु
पंखहीन मनुज
नारी, तुम स्वयं प्रकृति हो
पंख बिना मनुज अधूरा
अब तो ठंढी हो चली जीवन की राख
मेरा प्रियतम आया है, बावन साल बाद
सुख का उद्गम माँ की गोद
उर्मि का पाथार कैसे करेगा पार, प्रिये
जब तक तुम सुख सीमा बने रहे
नैतिकता भर रही चीत्कार
नैतिकता भर रही चीत्कार
मर्त नर को देवता कहना मृषा है
तीनों काल मुझमें है निहित
प्राणाकांक्षा
मैं बूढ़ा पथिक इस जग का
माँ! आज तुम्हारी पुण्यतिथि है
एक कवि की मृत्यु
एक खिलौना चाहिये
कण
कवि
अक्षय प्रकाश से दीन मनुज
अब कैसी आशा समर विजय की
अम्बर छोड़ चला दिवाकर
क्या यही हमारा हिंदुस्तान है
मनुज देह अवतरित हुए श्रीराम
महँगी
जीवन-मृत्यु
कोयल काली
झड़ते हैं पत्ते ,तो झड़ने दो
पर्यावरण
धूल –धुँध में अग्नि बीज बो रहा
तीनों काल मुझमें निहित
सुयश का भिक्षु , सिंधु
चाँदनी
ज्योतिषी
कोकिला छेड़ती जब पंचम तान
जीवन संध्या के सूने तट पर
तपोभूमि
ज्योतिषी
जिंदगी फ़ूलों की सेज़ नहीं होती
झड़ते हैं पत्ते ,तो झड़ने दो
धन - अभिमानी
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