Dr. Srimati Tara Singh
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गज़ल
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गज़ल
ठाकुर दास 'सिद्ध'
ठाकुर दास 'सिद्ध'
कुछ हक़ है हमारा भी
कुछ हक़ है हमारा भी
पास अपने
बहुत मज़बूत होगा वो
आसमाँ पर
लगाया दाँव पर दिल को
अब तबीयत ठीक है
कमाल का सितम
थी क़यामत खेज़ इक मुस्कान
ताक में शैतान बैठा
तने हैं
याद आई
जब उजालों की ज़रूरत थी बहुत
दिल कभी मुश्किल सवालों से घिरा
उजियारों की चाहत किस को
दिल कभी मुश्किल सवालों से घिरा
उजियारों की चाहत किस को
चुभती है बेलगामी
आ रहा है मालदारों का मसीहा
बदले वो कितने, बताने के दिन हैं
वक़्त कितना दीन था
आखिर वह व्यापारी है
याँ मामला हर एक उलझाया गया फिर
मौन से लगता है यूँ
छेड़ दी बात किस ज़माने की
अगर नहीं चुपचाप लुटे तो
तरुणाई को चुप कराना चाहता है
झूठों के इस शहर में
ख़्वाब अब मिल जाएगा
जो आप दें इजाज़त
इक ग़ज़ल मैं इस ज़मीं की लिख रहा हूँ
दिल से न लगाने का
चूल्हे कभी-कभी चलते थे
आज की आजादियों के दरमियाँ
साथ जिनके थी सरलता
जुदा तुम को कभी ख़ुद से नहीं जाना
है ठिकाना पर ठिकाने का नहीं
हमारा नाम ले-लेकर हवा जब गुनगुनाएगी
पा गया बंदूक अब कंधे की है दरकार उसको
ख़ून सारा पी चुके तो
ज़ख़्म जो दिल के दिखाता आपको
चमन की सैर पर सरकार निकले हैं
नफ़रतों के दौर का है ये असर शायद
हार में मैंने नगीने से लगाए
बिकने बौने याँ कतारों में खड़े हैं
नफ़रतें नहीं होतीं, फ़ासला नहीं होता
वह बहुत चालक है
जिस नज़र बादशाह करते हैं
हम कभी उन के चहीते थे कहाँ
जो लबों तक इक लबालब जाम आया
गुलिस्ताने-दिल में
ख़ुद वफ़ा जाने न दूजे की वफ़ा समझे
अरे 'सिद्ध' उसका भरोसा न कीजे
इनायत उनकी पाने तक
नग्नता के नाग से
ज़ंजीरे-आदत
यादों के मक़बरे में
यादों के मक़बरे में
ज़िन्दगी का बोझ ढोता
सीखा ही नहीं हमने
यह कैसा नाटक
आप भी ज़रा कहिए
बहुत दर्द है
उँगलियाँ दाँतों तले
जो ज़रूरी हो निहायत
तुम ज़मीं को थाम लो
नक़ाबों में हैं जो
तेरी ज़िन्दगी
राग गाए जा रहे हैं आज बारूदी
पास अपने नफ़रतों के गान होंगे
खल ख़ुश दिखे
आईने आख़िर दिखाने हैं
ख़्वाब कोई इधर का रुख़ करता
द़ागदार चाहते हैं अंधकार हों
थी मालिक की जात अलग
मान लो मरे हुए
अंजुमन में आपकी
मोम के दिल में
बोलो क्या होगा
यार आगे अब हमारा जो सफ़र हो
खल की हलचल जारी बाबा
ये ज़माना झूठ को सच मानता आया
खिला-पिला के काम करा ले
ख़त मिला अपना मुझे
सब हमें दरियादिलों के, कारनामे ज्ञात हैं
अब गुलामी से गिला है
क्या हुए उन से जुदा
कहीं वो ग़ज़ल तो नहीं
दुल्हन का डोला कहारों ने लूटा
जूझते जो धार से
नज़र शैतान की पाजी रही
ज्यादा की नहीं हसरत
इंसानियत की राह में
पत्थरों से आदमी
बन मशालों से चलो
वेदना ढोता हुआ जन-जन फिरे
आज़ाद वतन होगा
कहा सच, ये न सोचा, कौन माने है
जिनके सर पर संदेहों के बादल छाए हैं
आपसे जो बात कहनी थी
बारूद के इन्सान से
धिक्कार है
काटती ये रात ढलना चाहिए :
फ़साद से फ़सादों का निकलना देखा
बहुत किया विस्तार झूठ ने
पहले तो वह आत्मा बेचा किया
समय कोई भी हो, रहा राज उनका
कुछ हैं शोले, कुछ कपास हैं
आत्मा की मत पूछो
क्यों दर्द अपना तू यहाँ सबको सुनाए है
देखा न गया उनसे
उस छोर तक हम जाएँगे
कितना इन्तज़ार कर लिया
साथ-साथ गिनता साँसों को
साथ-साथ गिनता साँसों को
खामियाँ भी, खूबियाँ भी
आदर्शों को रौंद रहे आडम्बर आज
उसका सारा आसमाँ
काम की मजबूरियाँ कह कर
प्रीत कर और जीत ले
ताक पर नैतिक तकाजे रख दिए वो
दूर से वे थाह तेरी देखते
कूचे-कूचे फन फैलाए
कुछ मुखौटे मुख हुए
तन भले उजले बहुत हों
फूल हैं ना तितलियाँ हैं
क़ैद ख़्वाबों की सुहानी
पूछिए तो आईने से
बौनों का इतराना
दीद की शदीद आरजू लिए
अब ख़ुदारा कोई मेरा हाल ना पूछे
गर चाह न होवे
हो गया तुम पर हमारा दिल फ़िदा कहते
उनने धरातल छोड़ रक्खा था
ये तो न जरूरी है
अब नहीं उठता कहीं पर प्यार का स्वर
गीत मिरे दर्पण के जैसे
ये गजब रणबांकुरे हैं
कितनी मासूम है, कितनी नादान है
पाखंड़ अनूठे हैं
ख़ुद को
सितम की रात कभी गुजरेगी
युद्ध नहीं थम पाता यारो
रिश्तों में गर प्रीत नहीं
जो आप दें इजाज़त
इक ग़ज़ल मैं इस ज़मीं की लिख रहा हूँ
दिल से न लगाने का
पास अपने नफ़रतों के गान होंगे
शायरी का जायका
जहाँ-जहाँ मानवता होगी
सारी रात
कैसे ना कराहते
मोहब्बत जो उसने की
ऐ सनम
बीच महफ़िल से
ज़िन्दगी का हक़ नहीं
लुत्फ़-ए-मोहब्बत छोड़कर
कहाँ ठहरे
क्यों ना हुए
उसको मानव नहीं सुहाते
हम भारत के लोग
हम भारत के लोग
ये गजब रणबांकुरे हैं
ज़माना सरल तो नहीं
तेरी ज़िन्दगी
जिन्दगी का बोझ ढोता
हमने न महल रक्खे, हमने न किले रक्खे
यहाँ हर मील के पत्थर पे लिख दी आरज़ू तेरी
ख़त्म सर्कस हुआ यारो
जानवर आदमी में मिलते हैं
वो कपट से आपका सब लूट लेंगे
बखेड़ा कर खड़ा दें सोचता है
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ
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