Dr. Srimati Tara Singh
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कविता
वैशाली भरद्वाज
वैशाली भरद्वाज
सवाल
हमारी संस्कृति बंधी है राखी को डोरी से
कोई
कोख से तुझे बाहर लाऊं के न लाऊं मेरी नन्ही बिटिया
जड़ जरूरी है
बचपन
पहले तलवारो में भी इक हया हुआ करती थी
ऐसे कानों पे जहान् है
भई है जिम तो एक बीमारी
जब बुत टूटा तो हुई हरारत
आज
आज का नेता
तेरे पंख और तेरी उड़ान जाहिर है
बचपन के दिन पूंजी जैसे
ये एक जुटता अगर ऐसे ही कायम होती गयी
आदमी पे बरसता आदमी
जीवन की महायात्रा
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ
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