*13 वर्ष से अविरत जारी भारद्वाज दंपति के अभियान शब्दयुद्ध-आतंक के विरुद्ध* का श्रेय लेने की इस मानसिकता से आहत हैं हम, अवाक हैं हम!
इस समाचार को हमारा प्रत्युत्तर-
*शब्दयुद्ध-आतंक के विरुद्ध* पुणे के संजय भारद्वाज और सुधा भारद्वाज द्वारा 26/11 को मुम्बई पर हुए आतंकी हमले के विरुद्ध आरम्भ किया गया अभियान है। इसमें आतंक के विरुद्ध विभिन्न रचनाकारों की रचनाओं के पोस्टर बनाये गये। आतंक से मुकाबले के तरीकों और आतंक से हुए नुकसान का डेटा भी सम्मिलित किया गया। पुणे के समाचारपत्रों के लिए विज्ञापन डिज़ाइन करनेवाली एजेंसियों के एसोसिएशन ने भी अपने पोस्टर बनवाकर उपलब्ध करवाए।
इसकी पहली प्रदर्शनी हमले के दो माह बाद पुणे में 23 से 26 जनवरी 2009 को पुणे में हुई थी। पुणे के तत्कालीन पुलिस कमिश्नर डॉ. सत्यपाल सिंह ( जो बाद में केन्द्र में मंत्री बने) ने इसका उद्घाटन किया था।
तत्पश्चात मुम्बई में रविंद्र नाट्य मंदिर की पु.ल. देशपांडे आर्ट गैलरी में इसकी प्रदर्शनी लगी। साहित्य, कला, पत्रकारिता और शिक्षा जगत की अनेक हस्तियाँ इसकी साक्षी बनीं। इसमें पुष्पा भारती, पद्मा सचदेव, अभिनेता राजेन्द्र गुप्ता, अभिनेता यशपाल, अतुल तिवारी, डॉ. दामोदर खडसे, स्व. कैलाश सेंगर, अमर त्रिपाठी, घनश्याम अग्रवाल, डॉ. सुनील देवधर, डॉ. राजेन्द्र श्रीवास्तव, अनिल अब्रोल, माणिक मुंडे, अक्षय जैन, महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी के तत्कालीन अध्यक्ष नंदकिशोर नौटियाल, मुम्बई के तत्कालीन आयुक्त आर.ए. राजीव, अशोक बिंदल, डॉ. हूबनाथ, सुभाष काबरा, नवभारत टाइम्स के तत्कालीन संपादक शचींद्र त्रिपाठी, महाराष्ट्र टाइम्स के तत्कालीन सम्पादक अशोक पानवलकर, टाइम्स के फोटो जर्नलिस्ट श्रीराम वेर्णेकर, समाजसेवी गजेन्द्र भंडारी और अन्य अनेक प्रसिद्ध नाम शामिल हैं। अध्यात्मिक गुरु स्व. भैय्यू जी महाराज ने इसका उद्घाटन किया था। अंतिम दिन मुम्बई की संस्था 'चौपाल' के सहयोग से एक कवि गोष्ठी भी आयोजित की गई थी जिसमें अनेक मान्यवरों ने भाग लिया था। डॉ. श्रीमाली ने इसका संचालन किया था। आपका भी इसमें सहभाग था।
उसके बाद अनेक महाविद्यालयों में हम आतंक के विरुद्ध जागरण के लिए छात्रों के बीच इस आयोजन को ले गये। इस प्रदर्शनी पर हज़ारों मान्यवरों ने की प्रतिक्रिया दी है।
बाद में आपने स्व. सारस्वत के नाम से शब्दयुद्ध जोड़कर एक पुरस्कार आरम्भ किया। इसके एक आयोजन में मैं भी आमंत्रित था। आतंक के शिकार हुए आम आदमी और आतंकियों से लड़ते हुए शहीद हुए सुरक्षाकर्मियों के सम्मान को दृष्टिगत रखते हुए हमने कोई टिप्पणी नहीं की। पर अब इसका श्रेय ही अपने नाम से लेने का यह प्रयास न केवल दुखद है अपितु अवाक भी करनेवाला है। साहित्य में मौलिकता का सम्मान न होने से बड़ी विसंगति और क्या हो सकती है?
इस भ्रांत समाचार को तुरंत हटाया जाय। साथ ही एक ईमानदार पहल का श्रेय लेने के इस प्रयास के लिए क्षमायाचना की जाए। इसके बाद भी 'शब्दयुद्ध-आतंक के विरुद्ध' शीर्षक का प्रयोग यदि आपके द्वारा / आपकी संस्था द्वारा किया जाता है तो वैधानिक कार्यवाही के सिवा हमारे पास कोई विकल्प नहीं रह जाएगा।
*संजय भारद्वाज*
(23 जनवरी 2009 के दो फोटोग्राफ संलग्न हैं।)
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