कौशल किशोर की कविताएँ
(जन्म: 01 जनवरी 1954)
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आज हम कौशल किशोर की कविताओं के बारे जाएंगे।
कंटेंट' के उदात्त होने के साथ साथ कौशल किशोर की कविता की भाषा संस्कृतवर्णी और बिंबों का जाल न होने और बोलचाल के करीब होने के कारण उन्होंने वर्गसंघर्ष के प्रक्षेपण के बावजूद एक ओर जहां अपनी कविता को वायवीय, शुष्क सिद्धांतोन्मुख (philosophy prone) होने से बचा लिया है, वहीं दूसरी ओर कविता की 'संप्रेषणीयता' को अक्षुण्ण रख पाए हैं। बिम्ब और मार्क्स-दर्शन के सचेत संयोजन और संतुलन के कारण वे उन काव्य दोषों से साफ निकल जाते हैं, जिनके मोहजाल में अरुण कमल ,आलोक धन्वा, गीत चतुर्वेदी अरुणदेव आदि कला के लिए कविता में काम करने वाले कवि पूरी तरह और बुरी तरह फँसे नजर आते हैं। इनकी कविताओं को गुनते हुए मैंने पाया कि कवि विजेंद्र में बिम्बदोष और मार्क्सदर्शन दोष है, आलोक धन्वा कविता के 'पोस्टर बॉय' बनकर रह जाते हैं, जबकि अरुण कमल लोक की संभ्रांत दृष्टि से बिम्बों की झड़ी लगाकर कविता को लद्धड़ गद्य बनाने से नहीं चूकते! अज्ञेय की तरह गीत चतुर्वेदी भी जनसंघर्ष की जगह आत्मसंघर्ष और व्यक्तिवादी सौंदर्यबोध को प्रमुखता देना चाहते हैं, जिसमें कविता को कला के अतिरिक्त आग्रह की ओर ले जाने जैसा प्रतीत होता है।
लेकिन एक सावधान कवि की भूमिका में कौशल किशोर ने अत्यंत दायित्वशील सामाजिक कर्म के रूप में अब तक अपने शब्दकर्म का निर्वहन किया है। उनकी कविताओं से गुजरकर यह सहज अहसास होता है कि अपनी ज्ञानेंद्रियों को मुक्त रखकर उन्होंने वस्तुजगत का सचेत और गहरा अनुभव किया। फिर उससे उपजी संवेदना का समुचित पुनर्गठन कर कविता में अपने सवालों और तर्कों से उसे परिपुष्ट किया है। स्वभाव से मुक्तिकामी होने के कारण कौशल किशोर की कविताओं में आपको प्रायः वर्गीय टकराव (क्लास स्ट्रगल) देखने को मिलेगा। यही इनकी कविताओं का अतुल्य सौंदर्यबोध है-
"पहले की तरह अब भी
मेरे पड़ोस के बच्चे
पेट दबाए सो जाते हैं
और गृहस्थी का मालिक
यंत्रों की कातिलाना नीयत के बीच
दिन काटने के बाद लौटता है
पहले की तरह ही
अपनी घरऊँ वकत को
बड़े-बड़े नारों
वक्त के रंगीन नक्शों में
रह जाता है टटोलता-पटोलता।"
"मैं हर सुबह तड़के
जिन्दगी के कुछ ऐसे ही
वाकयातों से गुजरता हूँ
और मेरी पूरी-की-पूरी दिनचर्या
बीत जाती है जवाब तलाशते-तलाशते
मेरा हर सच्चा अहसास
बेरहम चार-दीवारियों से घिरा हुआ
क्यों पाता है हर दिन
संकट और खतरों के बीच ?"
- कैसे कह दूं (1977) से
यह कवि का कोई शब्द-कौतुक नहीं है, जीवनानुभव के द्वंद्व का हिस्सा है। सामाजिक गतिकी से उत्पन्न इस कविता में समकालीनता की गहरी लाक्षणिकता भी है, जिसमें इतिहास की द्वंद्वमयता मौजूद है।
मेरे विचार से वही कवि समकालीन होता है जो समय की नब्ज पर हाथ रखकर उसकी धड़कनों को टटोलता है। उसी से कविता में सृजनात्मक गति पैदा होती है। इसके केंद्र में कभी आभिजात्य संस्कृति की संवेदना नहीं रही, प्रत्युत यह 'सर्वहारा संस्कृति' की संवेदना से स्वयं प्रकट होती है, जो कविता को केवल आत्मसाक्षात्कार तक सीमित नहीं रखती, बल्कि सामाजिक अंतर्विरोधों और इतिहास की द्वंद्वात्मकता से मुठभेड़ करते हुए कविता के पाट का बेहद विस्तार देती है। कविता का यह गुण कौशल किशोर के कवि को जनपक्ष कवि का सुघड़ और सहज, किंतु एक संश्लिष्ट कवि बनाता है -
"कारखाने से लौटने पर
सबसे पहले बगावत कर रहे चेहरों से
गुजरना पड़ता है मुझे
झूठे वायदों व आश्वासनों के नीचे
उछलते हुए हाथों के बीच फैलने लगता है
भीतर ही भीतर ज्वालामुखी
मेरे घर की स्याह चार-दीवारियाँ
तब्दील होने लगती हैं काले पहाड़ में।
खाली बरतनों और डिब्बों की झन झन
पत्नी की खीस उतरती है
चिरौरी करते मासूम बच्चों की पीठ
उनके गालों पर
मैं हर ऐसे क्षण
अपने चारो तरफ फैली कंटीली झाडि़यों को
काट कर फेंक देने के लिए
कमरे से बाहर आ जाना चाहता हूँ
हाँ ! हाँ !......बाहर....
जहां तपिश है
हवा में आद्रता है
चिप चिपी गरमी है
उमस है
पर यहांँ मुट्ठी भर खुली हवा भी है
जो पूरे शहर में फैल जाने को युद्धरत है।"
- कारखाने से लौटने पर (1977) से
कौशल किशोर के कवि की जनशक्ति के संघर्ष और द्वंद्व की पहचान से उसकी समकालीनता तय होती है। गोकि, जिस कवि में संघर्षशील जन और अपने समय की बुनियादी धड़कनें नहीं होतीं, उसे वर्तमान में रहते हुए भी समकालीन कवि नहीं कहा जा सकता। कवि जितना अधिक समकालिक होगा, वह उतना ही समय से आगे जाकर रचेगा। वह वर्तमान से जुड़ कर भविष्णुता का आख्यान रचेगा। इस दृष्टि से कौशल किशोर आज के एक महत्वपूर्ण कवि हैं।
1970 से, यानी लगभग पचास वर्षों के दीर्घ कविता-काल में उन्होंने अपनी कविताओं में इसी 'समकाल' का कथाक्रम रचा है और उसे लोकसौन्दर्य की उन आभाओं से दीप्त किया है, जो धूसर, धवल, काईदार और जीवनसंघर्षों के अनेकवर्णी लोकरंगों में विन्यस्त दिखती है।
जब गांव के गांव ध्वस्त होने के कगार पर हों, तब भी उनके कवि में यह आशा जगी हुई है कि वक्त गुजर जाने के बाद हम जीवन का नया स्पंदन महसूस करेंगे । उसे विश्वास है कि जीवन लौटेगा। कवि यह भी कहता है -
शहर करवटें ले रहा है
शहर जाग रहा है
........
सोया हुआ गतिहीन शहर
अमानवीय रिश्तों की रखैल है
..... .......
इन रिश्तों की पाटों के बीच
दबा शहर नींद में नहीं रह सकता
नींद निश्चिन्तता की हमजोली है
और शहर इन रिश्तों के खिलाफ
सुगबुगा रहा है
पहली बार अपनी पूरी चेतना के साथ
बच्चों की फूटती हंसी के लिये
क्रूर प्रसंगों को दबोचता
शहर जाग रहा है।"
- जागता शहर (1978) से
सच है कि कौशल किशोर के लिए कविता कोई आत्मानंद की वस्तु नहीं है। वे स्वयं समाज के उसी संघर्ष और स्थितियों की उपज हैं। 'जब तक यह स्थिति नहीं बदलेगी, यह संघर्ष जारी रहेगा' - इस आश्वस्ति के साथ हर जगह आप उनके कवि में वर्गचेतना और वर्गसंघर्ष पाएंगे। इसी 'कौशल' से कवि किशोर का काव्यसौन्दर्य बनता और निखरता है।
हम कह सकते हैं कि कौशल किशोर की सामाजिक चेतना जिस काव्यसौन्दर्य का सृजन करती है, उसमें जिजीविषा की ऊष्मा के साथ वे सारे काव्य उपादान उपलब्ध हैं जो लोकसंघर्ष के अप्रतिहत मार्ग से निरंतर गुजरते हुए समकालीनता का एक आदर्श प्रतिदर्श रचते हैं।
इसलिए हमें कहने में संकोच नहीं कि कौशल किशोर की कविता शिल्प और अंतर्वस्तु के अद्वितीय संयोजन का सटीक उदाहरण हो सकती है। इधर उनकी कविताओं में सामाजिक-राजनीतिक संदर्भों की गहरी समझ, मानवीय संवेदनाओं की तीव्र अभिव्यक्ति, और भाषा की सहज प्रवाहशीलता स्पष्ट रूप से और भी प्रखर और धारदार हुई है जो उन्हें सपाटबयानी से बचाती भी है। कुछ कविताएँ जैसे कि, कविताएं— फिलिस्तीन, मुगलसराय, मुझे गर्व है..., और बहुत याद आये बाबा नागार्जुन- में सिर्फ विषयों की विविधता ही नहीं, बल्कि यह कवि के दृष्टिकोण की व्यापकता और शिल्पगत कौशल को भी उजागर करती हैं।
कौशल किशोर का शिल्प गद्यात्मकता और छंदमुक्त शैली का अप्रतिम संगम है। वे उनमें लय को हमेशा अक्षुण्ण रखते हैं जो Blank Verse की प्राण होती है। उनकी कविता की भाषा सहज, प्रवाहपूर्ण और समकालीन है, जो जटिल विचारों को भी सरलता से पाठकों तक पहुंचाती है। यही बात अगर कलावादी करते हैं तो अपनी भाषा को वे बिंबो से क्लिष्ट बना देते हैं। लेकिन कौशल किशोर का कवि प्रतीकों और बिंबों का कुशल प्रयोग करता है ,उदाहरण के लिए, फिलिस्तीन में “गाजा पट्टी”, “मलवे और खंडहर”, तथा “आंखों में स्वप्न” जैसे बिंब मानवीय संघर्ष और आजादी की अदम्य इच्छा को मूर्त रूप में व्यक्त करते हैं। यही कारण है कि उनकी कविता का लयबद्ध प्रवाह पाठकों को गहरे तक प्रभावित करता है।
कवि का ज्ञानात्मक संवेदना गहरी सामाजिक चेतना से लैस होती है जो कविताओं का मूल तत्व है। "मुगलसराय" में स्मृतियों और वर्तमान के द्वंद्व को जिस तरह चित्रित किया गया है, वह साधारण अनुभव को भी कविता में अद्वितीय बनाकर प्रस्तुत करता है।
यानी कि,कौशल किशोर की कविताओं का मूल तत्व समाज, राजनीति और मानवीय संवेदनाओं से गहराई तक जुड़ा है।
इस तरह से आप देख सकते हैं कि कौशल किशोर की कविताएं सामाजिक और राजनीतिक सवालों से रूबरू होती हैं। उनका लेखकीय सरोकार केवल मन की भावनाओं को व्यक्त करने तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक विचारधारा और संघर्ष का प्रतीक है। कविता की घटनाएं व पात्र जनजीवन से लिए गए हैं और हाशिए पर खड़े लोगों के संघर्ष और आशाओं को उजागर करती हैं।
आज प्रिय कभी कौशल किशोर जी का जन्मदिन है। मैं उनके जन्मदिन पर उनके स्वास्थ्य और दीर्घायु होने की कामना करता हूं। वे सतत लिखते रहें।•
ईमेल sk.dumka@gmail. com
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