आज बेटियाँ पढ रही हैं और आगे बढ रही हैं,
इस जमीं की बात क्या, आसमां तक बढ रही हैं|
अर्थ से मजबूत होकर, आगे बढने की अन्धी चाह,
खोकर अपने निजत्व को, खुद से ही लड रही हैं|
पश्चिम का अनुकरण, संस्कार सभ्यता त्याग कर,
नग्नता को ओढकर, वह संस्कृति को तज रही हैं|
विश्व के इतिहास में, भारत सदा ही सशक्त रहा,
विश्व गुरू बन कर रहे हम, बेटियाँ आगे रही हैं|
वेदो मे थी इनकी ऋचायें, ज्ञान का भन्डार भरती,
युद्ध की चर्चा करो तो, वीरांगनायें छायी रही हैं|
क्या हुआ जो त्याग कर, विगत की सब परम्परायें,
आगत की खातिर बेटियाँ, ताक पर सब रख रही हैं?
मांग मे सिन्दुर सुहागिन के और बिन्दी माथे पर,
सौलह श्रंगार लेकर, सनातन की बेटी सज रही थी,
है सभी का आधार वैज्ञानिक, ज्ञान का भंडार है,
क्यों ज्ञान का परित्याग कर, तम की ओर बढ रही है?
रहने लगी तन्हां बेटियाँ, बिन विवाह प्रेमी के संग,
मै और मेरे मे सिमटकर, परिवार को भी तज रही हैं|
सास ससुर तो बिसरा दिये, पति से भी मुख मोडकर,
अलग शहरों मे जुदा हो, बेटियाँ अब बस रही हैं|
है नही चिन्ता जरा भी, वर्तमान सुख उपभोग की,
क्या होगा पति के बाद, कल की चिन्ता कर रही हैं|
सभ्यता इनकी धरोहर, संस्कार विरासत मे मिले,
क्यों सभी को त्याग कर, संस्कृति का क्षरण कर रही हैं?
अ कीर्ति वर्द्धन
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