Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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घर

 
घर
तब ही घर बन पाता है
जब उसमें
दीवारें हों
जो रोकती हों
निन्दा का अविरल प्रवाह
दरवाजा हो
जो स्वागत करे
मेहमान का
रसोई हो
जहाँ बने स्नेहशिक्त व्यंजन
शयनकक्ष हो
जिसमें भविष्य का चिंतन हो
और कलाकक्ष
मेहमानों का स्वागत करता
मधुर मुस्कान बिखेरता
मन के भावों को दर्शाता
बुजूर्गों की आशीर्वाद से पूर्ण
बच्चों की क्रीडास्थली का साक्षी
और
कभी कभी
खट्टी- मीठी, तीखी- कसैली, 
बातों के बीच
अपनत्व की राह खोजता।
हाँ 
जी हाँ
घर तभी घर बन पाता है
वर्ना
ईंट पत्थर से बना
दीवारों से घिरा
खुले मैदान सा विस्तृत
अथवा
झोपडी सा सिमटा
कोई स्थान
मकान हो सकता है
होटल हो सकता है
वर्तमान दौर में
कोठी बंगला
अथवा रिजॉर्ट भी
मगर
नही हो सकता है
वह घर।

अ कीर्तिवर्धन


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