कुछ बहुओं को हमने देखा, घुट घुट कर घर में जीती,
सास ननद पति का ग़ुस्सा, चुप चुप ज़हर समझ पीती।
नये दौर में यह बातें, माना कुछ कुछ कम दिखती हैं,
कुछ बहुएँ तो दहेज के ताने, आज भी सहती हुई दिखती।
कहीं कहीं तो सास बहू पर, इस हद तक हावी हो जाती,
हर काम में कमी निकाल, ख़ानदान पर आरोप लगाती।
बेटा भी हमदर्दी में यदि, पत्नी की ख़ातिर कुछ बोला,
बेटे को भी नहीं बख्शती, बहु की ग़ुलामी आरोप लगाती।
*******************************************
कुछ बहुओं को हमने देखा, सारे घर को नाच नचाती,
सासु ननद देवर क्या होता, पति को भी औक़ात बताती।
बड़ी शान से बतलाया जाता, खाना नहीं बनाना आता,
निज आज़ादी ख़लल पड़ा तो, सारे घर को आँख दिखाती।
कुछ बहुएँ तो इससे आगे, आते ही कोहराम मचाती,
तन्हा रहना जीवन इनका, बँटवारे की दीवार कराती।
सास ससुर संग कहीँ तो, रोज़ रोज़ अहसान जताती,
जब भी अवसर मिल जाये, वृद्धाश्रम दर्शन करवाती।
डॉ अ कीर्ति वर्द्धन
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY