नये दौर के इस युग में, सब कुछ उल्टा दिखता है,
महँगी रोटी सस्ता मानव, गली गली में बिकता है।
कहीं पिंघलते हिम पर्वत, हिम युग का अंत बताते हैं,
सूरज की गर्मी भी बढ़ती, अंत जहाँ का दिखता है।
अबला भी अब बनी है सबला, अंग प्रदर्शन खेल में ,
नैतिकता का अंत हुआ है, जिस्म गली में बिकता है।
रिश्तो का भी अंत हो गया, भौतिकता के बाज़ार में
कौन, पिता और कौन है भ्राता, पैसे से बस रिश्ता है।
भ्रष्ट आचरण आम हो गया, रुपया पैसा खास हो गया ,
मानवता भी दम तोड़ रही, स्वार्थ दिलों में दिखता है।
पत्नी सबसे प्यारी लगती, ससुराल भी न्यारी लगती ,
मात पिता संग घर में रहना, अब तो दुष्कर लगता है।
डॉ अ कीर्तिवर्धन
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