सागर की औकात नहीं, जो मिटा सके पहचान मेरी,
गंगा हूं, सागर को कहती, गंगा सागर पहचान तेरी।
धुल जाते हैं पाप सभी, जो एक बार स्नान करें,
तिर जाते हैं पुरखे भी, जो अस्थि भी स्नान करें।
लाख मिले मुझमें सागर, क्यों सागर सी हो जाऊं,
मीठा है जल मेरा, खारे में मिल खारी हो जाऊं?
उससे बेहतर अपने जल से, सागर को मीठा कर पाऊं,
सागर का नाम बदलकर, उसको गंगा सागर कर जाऊं।
अ कीर्ति वर्द्धन
Powered by Froala Editor
LEAVE A REPLY