Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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वीरान होते अपने घरों को

 
देखता हूं जब कभी, वीरान होते अपने घरों को,
मन में उठती टीस गहरी, देख कर अपने घरों को।
थे कभी आबाद घर जो, बच्चों से गुलजार रहते,
उड गये आब सारे परिन्दे, छोड़कर अपने घरों को।
था बडा सा आंगन और नीम का एक पेड़ भी था,
आंख से बहते हैं आंसू, सोचकर अपने घरों को।
एक तरफ बाबा की खटिया, रौब उनका था बहुत,
रहते थे संयुक्त परिवार, जो जोड़ते अपने घरों को।
दर्द होता है जब बिखर कर, सब तन्हां रहने लगे,
कैसे संवारू और बचाऊं, टूटते अपने घरों को।

अ कीर्ति वर्द्धन

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