Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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सागर की गहराई, कोई जान सका ना

 
सागर की गहराई, कोई जान सका ना,
छिपे हुये हैं कितने मोती, जान सका ना।
झरझर झरते मेरे आँसू, सब देख रहे हैं, 
दर्द छिपा कहाँ पर कितना, जान सका ना।
मुझसे मेरी व्यथा पूछते, मेरे घर के अपने,
क्यों जार जार मैं रोया, कोई जान सका ना।
किसको अपनी पीर बताऊँ, सबके हित हैं,
शुष्क नयन घट भीतर रोता, जान सका ना।
मेरी पीडा मेरी अपनी है, किसको समझाऊँ,
सुख की चाहत डोल रहा जो, जान सका ना।
लगता जैसे बिखर रहा हूँ, अब रेत कणों सा,
तट पर बैठा प्यासा हूँ, कोई जान सका ना। 

अ कीर्ति वर्द्धन

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