Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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वो कहाँ बचपन बचा अब

 

Kirtivardhan Agarwal

वो कहाँ बचपन बचा अब, आँख मिचौली खेलते,
रेत के घरोंदे बनाते, खेलते और दूसरो के तोडते।
लडते झगडते रात दिन, कुट्टी और अब्बा रोज की,
छीन कर खाना बाँट कर खाना, खिलौनों को तोडते।
कभी बनायी कागज की नाव, बरसात की मस्तियाँ,
वो भी दिन क्या खूब थे, जब जहाज अपने दौडते।
रामलीला की सर्द होती शामें, या गर्मियों की छुट्टियां,
दीवाली पर दीप जलाना, सबसे ज्यादा पटाखे फोडते।
अब कहाँ है दौर वैसा, जैसा हमारे बचपन मे था,
 गाँव था अपनी हवेली, ताऊ- चाचा से सबको जोडते।

अ कीर्ति वर्द्धन

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9 hrs · Public

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