ए.टी.ज़ाकिर
जिस्म थक जाये, टूट जाये, बिखर जाये तो क्या ?
वक़्त को हारना और आदमी को जीना है |
सब शिक़स्तों को, मज़ालिम को है पीना तुझको,
तुझको मरना नहीं, जीना है, फ़क़त जीना है |
हार के घूँट कई बार पिये हैं तूने,
जब से आया है तू, इस दुनिया में जीने के लिये |
क्या तवारीख़, क्या निज़ाम और क्या रस्मों – रिवाज़,
सब के हाथों में है इक तेग नुकीली, तेरे सीने के लिये |
जिस्म घायल, हाथ ख़ाली, कोई परवाह न कर,
गर्मिये रूह ख़ुद शमशीर में ढल जायेगी,
वक़्त, तारीख़ो - निज़ाम, रस्मों – रिवाज़ हारेंगे,
ज़ीस्त क्या चीज़ है, तक़दीर बदल जायेगी |
दिल को मत तोड़, थके पाँव अगर उठते नहीं,
राह दुश्वार है और तन्हा सफ़र है तेरा |
वो बहुत दूर, कहीं पर्वतों से भी ऊपर,
एक सपनीला – सुनहरा सा, वो घर है तेरा |
आगे बढ़ना है यूँ, हालात मुत्तासिर न करें,
इन अँधेरों को, ज़ख्मे – ठोकरों को पीना है |
राह सिमटेगी, मिलेगी तिरी मंज़िल तुझको,
मौत को हारना और ज़िंदगी को जीना है |
जिस्म थक जाये, टूट जाये, बिखर जाये तो क्या ?
वक़्त को हारना और आदमी को जीना है |
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