यूँ तो स्कूल-काॅलेज़ में मेरा विषय विज्ञान और वाणिज्य ही रहा पर मुझे इतिहास शुरू से ही बडा़ रोचक लगता रहा है। मैं इतिहास पढ़ते-पढ़ते उसे जीने भी लगता हूँ। मैं टाईम मशीन में बैठकर उस काल में पहुँच जाता हूँ। ऐतिहासिक घटनाएँ मेरे सामने किसी फिल्म की तरह चलने लगती हंै। मैं स्वयं भी अपने आपको इतिहास का एक पात्र मानने लगता हूँ। लोगों को अशोक और अकबर अपनी महानता के कारण पसंद आते होंगे, पर मुझे इतिहास का सबसे प्रिय चरित्र औरगंज़ेब लगता रहा है। अपने मज़हब के प्रति वह जिस तरह से कमिटेड था, उसकी मिसाल मुझे किसी में भी नज़र नहीं आती है। वास्तव में उसकी कट्टरता ही उसके चरित्र का सबसे बडा़ आकर्षण थी। कई किताबों में मैंने पढ़ा था कि उसने अपनी कट्टरता का प्रयोग दूसरों के दमन मंे न करके, स्वयं के विकास में ही किया था। दक्षिण विजय उसके विकास की जीती-जागती मिसाल थी। उसके बारे में मैंने पढ़ा था कि वह ज़िन्दा पीर आलमगीर था। वह महलों में रहकर भी संन्यासियों की तरह ही जीवन-यापन किया करता था। वर्तमान में जहाँ शासक वर्ग टोपी पहनाकर जीविकोपार्जन करते हंै, वहीं वह टोपियाँ सीकर और उसे बाज़ार में बेचकर जीवन निर्वाह किया करता था। हो सकता है कि कला-संस्कृति को ज़मीन में दफ़्न करने की उसकी चाह धर्मान्धता की पराकाष्ठा रही हो, पर फिर भी वह एक यूनिक चरित्र तो था ही।
एक बार मैं थियेटर में औरंगज़ेब नामक नाटक देख रहा था। नाटक में वह जेल में बंद था। पर चूँकि वह एक राजा था, और उसकी ख़्वाहिश थी कि उसकी कोठरी में राजसी वस्त्र उपलब्ध रहें, सो उसकी इस मामूली सी ख़्वाहिश पूरी कर दी गई थी। कैद में वह जब भी हताश निराश होता वह अपने उन राजसी वस्त्रों को पहन लेता था, और वह बादशाह की अकड़ के साथ सिंहासन पर बैठने की एक्ंिटग किया करता था। उन वस्त्रों को पहनने के बाद वह अपने आपको कैदी न मानते हुए बादशाह ही समझने लगता था। यह कुछ क्षणों का भ्र्र्र्रम उसे कुछ क्षणों की खुशियाँ प्रदान करता था। उस नाटक में उस औरंगजे़ब के पात्र का उस वक़्त खुद के बादहशाह होने का भ्रम और उसकी अकड़ मुझे हमेशा के लिए याद रह गये।
मेरा एक मित्र था भास्कर त्रिवेदी। मेरी उससे जब से मित्रता हुई मैंने उसे अय्याश के तौर पर ही पाया। मुझे जब अपना हाॅफ-पैण्ट संभालना भी नहंीं आता था, वह तभी से औरतों और मर्दांे के रिश्तों के बारे में सारी जानकारियाँ रखता था। मैं उसे एक बेहद गंदा लड़का मानते था, तो भी उसकी बातंे सुनने के लिए मैं लालायित रहा करता था। एक अज़ीब किस्म का मजा देने वाली सिरहन सी पैदा होती थी उसकी बातें सुनकर। कॅालेज़ पहुँचते-पहुँचते वह एक बड़ा खिलाड़ी बन गया था। चंूकि वह बेहद स्मॅार्ट था, और किसी हीरो की तरह दिखता था, सो लड़कियाँ उसकी तरफ़ बेहद आकर्षित होती थीं। उसके साथ सबसे बडी़ बात यह थी वह एक ब्राम्हण जाति का लड़का था, सो उसका आत्मविश्वास भी गज़ब का था। मैंने अपने मुहल्लें के कई बडे़-बुजुर्गो को उसे महाराज पाय लागी कहकर संबोधित करते हुए सुना था।
मैं एक दलित जात का निरीह सा दिखने वाला, जातिगत हीन भावना से ग्रस्त लड़का था। मैं सोशल फोबिया से ग्रस्त था। मुझे भीड़ से बेहद डर सा लगता था। मैं हमेशा सशंकित रहता था कि कहीं से कोई मेरी जाति से मुझे संबोधित न कर दे। हालांकि अपनी कुण्ठा के चलते मैं उस पर कभी भी भरोसा नहीं कर पाया। ख़ैर वह अपनी अय्याशियों के क़िस्से मुझे ही सुनाता और मैं अपना मन-मसोसकर रह जाता। मैं उसकी अय्याशियों के क़िस्से सुनने और उसकी मर्दागनी का लोहा मानने वाला एकमात्र श्रोता था। चूंकि मैं कभी भी उस पर संदेह व्यक्त नहीं करता था, या संदेह उत्पन्न करने वाले प्रतिप्रश्न भी नहीं किया करता था, सो वह मुझे अपना सबसे भरोसेमंद साथी मानता था। ख़ैर मुझे उसकी क़िस्मत पर रश्क होता था। मैं तो अपनी जातिगत हीनता के कारण लड़कियों से बातें करना तो दूर सर उठाकर उनकी तरफ देख भी नहीं पाता था। खैर हम दोनो ने साथ-साथ काॅलेज़ पास किया और एक प्रतियोगी परीक्षा दिलाकर साथ-साथ ही नौकरी में लगे। संयोगवश हमें एक ही गांव में नौकरी लगी। हम दोनो की फील्ड वाली नौकरी थी और हमे एक लम्बे-चैडे़ क्षेत्र का भ्रमण करना होता था। उसके पास मोटर सायकल थी, जबकि मेरे पास सायकल ही थी। जल्द ही भास्कर पूरे क्षेत्र में महाराज के नाम से प्रसिध्द हो गया था। जब कभी हम साथ होते, वह रास्ता चलती हुई लड़कियों और औरतों को इशारों ही इशारों में पटा लेता और मुझे पता भी नहीं चल पाता था। वह जब बताता कि यह लड़की या औरत मुझसे सैट हो गई है, तो मुझे सहसा यकीन ही नहीं हो पाता, लेकिन फिर लड़कियों के हाव-भाव से मुझे यकीन करना ही पड़ता। वह बडी़ से बड़ी सभ्य औरत को सैट कर फतह कर लेता था।
शहरों में तो फिर भी उसे मर्यादित रहना होता था, गाँव पहुँचकर तो वह पूरी तरह से उश्रृंखल हो गया था। वह लगातार सफलता के झण्डे गाड़ने लगा। लड़कियाँ और औरतें तो मानों उसकी दीवानी सी थीं। कई बार तो ऐसा होता कि वह किसी लड़की को पटाना चाहता और लड़की के साथ-साथ उसकी माँ भी पट जाती। उस गांव में राजपूत और बनिया परिवार एक-एक ही थे, बाकी सारे या तो ओबीसी क्लास के या फिर दलित वर्ग के थे। उस गांव में एकमात्र भास्कर ही ब्राह्मण था। सभी लोग उसे महाराज-महाराज कह इज्जत देते थे। वह मुझे ज़्यादहतर अपने साथ ही रखता था। वह कहता था कि अबे लड़कियांे को लेकर मुझे तेरी झिझक मिटानी है। पर लगभग बदसूरती की हद तक औसत दर्जे का मेरा चेहरा तिस पर मेरी दलित जाति से उपजी हीन भावना मेरी झिझक मिटाने की राह में सबसे बडे़ रोडे़ थे। फिर भी उस गाँव के माहौल को देखते हुए मुझे लगने लगा कि जब भास्कर इतनी सारी लड़कियां पटा सकता है, तो मैं एककाध तो पटा ही सकता हूँ।
वहाँ पर मेरा कमरा दो तरफ़ से खुलता था। एक तो घर के भीतर की ओर, दूसरा बाहर गली की ओर से। मेरे कमरे के सामने से एक साधारण सी दिखने वाली लड़की रोज ही दोपहर के लगभग एक बजे सार्वजनिक नल पर पानी भरने जाया करती थी। वह लड़की वहां के दलित कोटवार की लड़की थी, और मेरी ही जात की थी। उसका रंग-रूप भी बेहद साधारण था। मुझे लगा सजातीय होने के कारण सहानुभूतिवश ही सही वह मुझसे पट जायेगी। और मैं भी कोई ऐरा-गैरा तो हूं नहीं। एक सरकारी कर्मचारी हूं। और कुछ नहीं तो लालच में आकर ही पट जायेगी। एक दिन मौका देखकर मैंने उससे कह ही दिया कि तुम मुझे अच्छी लगती हो। इस पर वह भड़क गई और हमारी क्षेत्रीय भाषा में मुझे ग़ालियां देने लगी। यह तो मेरे लिए एक झटका सा था। कहां भास्कर अपने फील्ड के बीस गांवों में से हर गांव में कई-कइ्र्र लड़कियां पटा रखा था। और मेरा एक प्रयास भी असफल साबित हो चुका था। अब मुझ पर हताशा निराशा हावी होती जा रही थी।मेरा आत्मविश्वास बुरी तरह डगमगा गया था। अगले कुछ दिनों तक मैं विचित्र सी मनः स्थिति में रहा, फिर मैंने अपने कमरे का गली की तरफ़ खुलने वाला दरवाज़ा लगभग बंद ही कर दिया। उधर भास्कर का मुझे अपनी अय्याशियों के क़िस्से सुनाना बढ़ता ही जा रहा था।
कुछ दिनों बाद मैंने अपने साथ घटी उस घटना के बारे में भास्कर को बताया। भास्कर ने मेरी मनःस्थिति भाँप ली। वह तिलमिलाता हुआ सा कहने लगाा उस साली की इतनी हिम्मत कि वह मेरे दोस्त को ग़ाली दे। फिर उसने मुझसे कहा अबे मेरे पास तो एक से एक आईटम हंै। तू जिसे कहे, मैं तेरे हवाले कर दूं। लेकिन मैं उस घमण्डी लड़की का घमण्ड जरूर तोड़ूंगा। चल उस लड़की को मैं तेरे लिए पटाकर दूंगा। यह तो एक अजीबोगरीब बात थी कि कोई और किसी के लिए लड़की पटाकर सौंप दें। उस लड़की के प्रति मेरा आकर्षण तो ख़त्म ही हो चुका था। सो मैंने भास्कर से कहा कि भाई इस मामलें में मुझे तेरी मदद की जरूरत नहीं है। मैं अपने दम पर पटा लूँगा। खै़र उसने मुझसे पूछा बस तू इतना बता दे कि वह पानी भरने कितने बजे निकलती है? मैंने उसे समय बता दिया। उसी दिन शाम को भास्कर ने मुझे चहकते हुए बताया कि अबे वो तेरे सामने नखरे दिखाने वाली लड़की मेरे लिये तो पलकें बिछाये बैठी थी। मैंने सिर्फ़ इशारा किया और वह सीधे मेरे कमरे में ही पहंुच गई। हमने खूब मजे किये, कहते हुए वह अपनी रासलीला के किस्से सुनाने लगा। लेकिन पता नहीं क्यों आज मुझे उसकी रसीली बातों को सुनकर अच्छा नहीं लग रहा था। एक दलित लड़की के साथ भास्कर की रासलीला से मुझे ऐसा लग रहा था जैसे उसने मेरा हक़ छीन लिया है। मैं अपने में ही खोया हुआ था कि अचानक उसने कहा तेरे काम की एक बात है। मंैने उस लड़की से अपने ज्वाईंट अकाउण्ट की बात की है। मतलब यह कि वह तुझे भी मजे देगी। देखना कल से तेरे प्रति उसका व्यवहार बदल जायेगा। वाकई मे अगले दिन से वह एकदम से बदल चुकी थी। अब वह बेझिझक मेरे कमरे में दाख़िल हो जाती थी, और मुझे छेड़ने लगती थी। हालाँकि वह मेरे लिए एक जूठन के समान ही थी, पर थी तो आख़िर लड़की ही। पर चूँकि मेरे अंदर वर्षो का हीनता-बोध था, सो मैं कभी भी आगे नहीं बढ़ पाया। मैं उत्तेजना के मारे काँपता सा रह जाता था, पर उससे संबंध बनाने का उपक्रम कभी भी नहीं कर पाता था। जबकि मैं जानता था कि लड़की पूरी तरह से तैयार है।
उस लड़की का भास्कर के घर जाने का सिलसिला जारी रहा। वह अक्सर दोपहर में ही जाती, जब वह गली सुनसान हो जाती। एक दिन भास्कर ने मुझसे कहा कि अबे तू एक नंबरी डरपोक है। आज दोपहर को तू मेरे घर पर आना। सेक्स को लेकर तेरा डर मैं पूरी तरह दूर कर दूँगा। आज दोपहर को वह मेरे घर पर आयेगी, उस वक़्त तू मेरे साथ ही रहना। चल आज मैं तेरी हिम्मत बढा़ता हूँ। मेरे लिए यह अकल्पनीय था कि दो लोग एक ही लड़की के साथ...अरे बाप रे ये तो रेप होगा। और उसके बाद मैं अपनी कल्पनाओं में पुलिस, जेल और फाँसी तक पहुँच गया। खै़र मैंने थोडी़ हिम्मत बटोरी, और भास्कर के घर पहँुच गया। हमने उसी के घर पर दोपहर का खाना खाया और फिर बेसब्री से उस लड़की का इंतज़ार करने लगे। कुछ ही देर में दरवाजे पर हल्की सी दस्तक सुनाई पड़ी, और मेरा दिल तेज़ी से धड़क गया। उसने मुझे दरवाजे़ के पीछे छिपने को कहा और फिर दरवाज़ा खोल दिया। लड़की अंदर आई और फिर बिना किसी औपचारिकता के उनके बीच काम-लीलाएँ शुरू हो गईं। इधर मैं विचित्र से झंझावातों में फँसा रहा। मंैने पहली बार यह सब देखा था। उत्तेजना के मारे मेरा बुरा हाल था, पर रेप, पुलिस, ज़ेल और फाँसी के विचार अचानक से मेरे सामने फिर से प्रकट हो गये, और मेरी उत्तेजना की हवा निकल गई।उधर उस लड़की की नज़र भी मुझ पर पड़ चुकी थी।उसे किसी क़िस्म का ऐतराज़ और आश्चर्य नहीं हुआ था। शायद भास्कर ने उसे बताकर रखा था। खै़र अब मैं वहाँ से तेज़ी से बाहर निकल गया। शाम को मिलने पर भास्कर ने कहा भाई तेरा कुछ नहीं हो सकता। इधर मुझे अब अज़ीब क़िस्म का वैराग्य हो गया था। इस बीच भास्कर ने कई बार मुझे दूसरों के साथ भी शेयरिंग के लिए कहा, पर वह एक अजीब क़िस्म का वैराग्य मेरे व्यक्तिव पर हावी रहा और मैं इस मामले में कभी कुछ नहीं कर पाया।
कुछ महीनों बाद मेरी बदली शहर में हो गई और फिर भास्कर के साथ औपचारिक संबंध भर रह गये, जो धीरे-धीरे ख़त्म से होने लगे। इस बीच मेरी शादी हो गई। कुछ महीनों बाद भास्कर की भी शादी हो गई थी। हम अपने-अपने परिवार में व्यस्त हो चुके थे। भास्कर के बारे में इधर-उधर से पता चलता रहता था कि शादी के बाद भी उसकी अय्याशियों में कोई कमी नहीं आई है। वर्ष बीतते गये और हम युवास्था से अधेड़ावस्था के आख़िर तक जा पहुँचे थे। हमारे बच्चे भी बडे़ हो गये थे। उसके बच्चों की उम्र भी मेरे बच्चों के बराबर ही थी। अब उसने भी बच्चों की पढा़ई के कारण अपना तबादला मेरे ही शहर में करा लिया था, पर शहर में हमारी मुलाक़ात नहीं हो पाई थी। एक दिन मैं बस स्टॅाप पर खडा़ बस का इंतज़ार कर था कि मैंने देखा कि भास्कर अपनी मोटर-सायकल पर किसी महिला को बिठाकर ले जा रहा है। मैं उसकी पत्नी से मिल चुका था। पर ये औरत तो उसकी पत्नी नहीं थी। मुझे खटका सा हुआ। मंैने आवाज़ देकर उसे पुकारा। उसने मुझे देख लिया था। वह लौटकर आया, और कहने लगा भाई मै जरा जल्दी में हूँ। तू बस पकड़कर चैथे स्टाॅप पर आ जा, फिर फुरसत से बातें करते हैं। आना जरूर...तुझसे अर्जेण्ट काम है, कहकर वह निकल गया। भास्कर से काफ़ी अर्से के बाद मेरी मुलाकात हो रही थी। मैं भी उसके साथ फुरसत से बैठकर बातें करना चाह रहा था। और फिर उसने मुझसे अर्जेण्ट काम है कहा भी है। मैंने सोचा चलो आज छुट्टी का दिन है। भास्कर के साथ बैठकर पुरानी यादें ही ताजा करते हंै। बस में बैठकर मैं चैथे स्टाॅप पर पहुंचा। वहाँ भास्कर बस स्टाॅप पर ही मेरे इंतज़ार में खड़ा था। उसके साथ वह महिला नहीं थी। उसने मुझे अपनी मोटर-सायकल के पीछे बैठने को कहा। हम चलने लगे, तो मैंने पूछा हम कहाँ जा रहे हंै? इस पर उसने बताया कि आगे थोडी़ ही दूर पर एक गली में मेरा घर है। हम वहीं जा रहे हैं। मैंने कहा यार तो पहले बताना था ना। पहली बार तेरे यहां वाले घर जा रहा हूं। तेरे बच्चों के लिये कुछ उपहार ले लिया होता। इस पर उसने बताया कि तेरी भाभी मायके गई है, और बच्चों को भी अपने साथ ले गई है। मैं घर पर अकेला ही हूँ। आज हम अपनी पुरानी जिन्दगी जियेंगे। इतना कहते-कहते हम उसके घर पहुंच गये। उसके घर के सामने ही वाले कमरे में वही महिला बैठी हुई थी। अब मुझे समझ आ गया था कि उसकी अय्याशियों की आदत आज भी नहीं छूटी है। और मुझमें आज भी कुण्ठा अपने मूल स्वरूप में विद्यमान है। जिसे मैंने अपनी प्रतिष्ठा खोने के डर से जोड़ रखा है।
वह एक प्रोफेशनल सेक्स वर्कर थी। उसे मेरे सामने किसी क़िस्म की शर्म नहीं थी। फिर बिना किसी औपचारिकता के उनके बीच वह सब कुछ शुरू हो गया। पर इस बार मैंने स्पष्ट सुना। वह कह रही थी-महाराज अब आप बूढे़ हो गये हो। आपसे कुछ नहीं हो पायेगा। ऐसा कहती हुई उस औरत का अतृप्त चेहरा मुझे स्पष्ट नज़र आ गया था। लेकिन भास्कर उससे कह रहा था कि होगा ना। होगा कैसे नहीं। मंैने उत्तेजना बढा़ने वाली दवाई ली है। उस औरत की अतृप्त आंखें अब मुझ पर ही टिक गयी थीं। उधर हाँफता हुआ थका-थका सा भास्कर उसके उपर से उठ चुका था, और उस महिला से कह रहा था- थोड़ा रूको। लगता है दवाई का असर नहीं हो रहा है। उधर मैं फिर पहले की ही भाँति अपनी कुण्ठा रूपी प्रतिष्ठा की सलीब टांगे हुए झटके से वहाँ से निकल गया।
आज मुझे भास्कर में औरंगजे़ब का कैरेेक्टर साफ़ नज़र आया था। कैदी होने के बावजूद स्वयं को बादशाह होने का भ्रम पाला हुआ औरगंज़ेब।
आलोक कुमार सातपुते
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