उस आदमी ने मिट्टी की एक प्रतिमा गढ़ी । अपने शिल्प को वह आत्म-मुग्ध होने के भाव से मुस्कुराकर देखता रहा...देखता रहा । अचानक उसे महसूस हुआ कि, वह प्रतिमा भी मुस्कुराने लगी है। प्रतिमा को मुस्कुराता देखकर वह डर गया और वह उस प्रतिमा के चरणों में सिर झुकाकर बैठ गया । अब आत्म-मुग्ध होने का भाव खत्म हो गया था। उसने उस प्रतिमा के चरणों में बैठे-बैठे ही उपर नज़र डाली, तो वह प्रतिमा उसे अपने विराट-स्वरूप में नज़र आने लगी, और वह स्वयं को उसके समक्ष बौना महसूस करने लगा, और उसने उसे सर्वशक्तिमान मानना शुरू कर दिया और एक अनजाने भय से ग्रस्त हो अपनी रक्षा के लिए उसे पुकारने लगा। फिर अचानक उसे महसूस हुआ कि उस प्रतिमा ने उसके सर पर हाथ रख दिया है, अब उसने प्रतिमा की पूजा-अर्चना प्रारंभ कर दी ।
...वह आदमी और वह प्रतिमा आज भी एक दूसरे के आश्रित बने हुए यत्र-तत्र-सर्वत्र नज़र आते रहते हैं ।
मौलिकता प्रमाणपत्र
प्रमाणित किया जाता है कि प्रस्तुत सभी लघुकथाएं मेरी मौलिक रचनाएं हैं।
आलोक कुमार सातपुते
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