सन् 1940 में रामविलास शर्मा को पी-एच0डी0 की उपाधि मिली, धीरे-धीरे प्रगतिशील लेखक संघ की ओर उनका आकर्षण बढ़ रहा था। सन् 1943 की गर्मियों में बम्बई में प्रगतिशील लेखक संघ का अधिवेशन होने वाला था। रामविलास जी उसमें भाग लेने के लिए गये। इस सम्मेलन का बड़ा दिलचस्प वर्णन उन्होंने किया है। ’’इस सम्मेलन की अध्यक्षता राहुल जी करने वाले थे पर उनके किसी कारण से न आने पर डागें ने अध्यक्षता की थी। सम्मेलन में मराठी लेखक मामा बरेरकर के अलावा जोश मलीहाबादी, अली सरदार जाफरी, अमृतलाल नागर आदि लेखक भी थे।’’ (सं. सुभाष सेतिया-आजकल, अपै्रल, 2000, पृ.19) रामविलास उस समय कम्यूनिष्ठ पार्टी के सदस्य नहीं थे। इसी सम्मेलन में उनकी भंेट कम्यूनिष्ट नेताओं से हुई एवं 1943 जाते-जाते वे कम्यूनिष्ट पार्टी के सदस्य बन गये तथा पार्टी में वे प्रतिनिधि व पर्यवेक्षक भी चुने गये।
प्रगतिशील लेखक संघ के बम्बई अधिवेशन से लौटकर रामविलास शर्मा लखनऊ आये। पर यहाँ लखनऊ से उनकी विदाई की तैयारी हो रही थी। असल में सिद्धान्त साहब को दो बातें अच्छी नहीं लगती थीं- एक तो रामविलास शर्मा का हिन्दी में लिखना और दूसरा उनका वामपंथी झुकाव। रामविलास शर्मा लखनऊ लौटकर आये, सिद्धान्त साहब के घर मिलने गये तो सिद्धान्त साहब ने कहा- ’’राजपूत कालेज आगरा मे अंग्रेजी विभाग के अध्यक्ष का पद खाली है। तुम आगरा चले जाओ।’’(डाॅ. रामविलास शर्मा-घर की बात, पृ.34) रामविलास जी यूनिवर्सिटी छोड़कर आगरा नहीं जाना चाहते थे, पर विवशता थी।
सन् 1949 से 1953 तक रामविलास शर्मा प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव रहे। यह समय प्रगतिशील लेखक संघ के लिए बृहद झंझावातों से भरा था। डाॅ0 रामविलास ने एक लेख में लिखा है-’’मैं क्रमशः संयुक्त प्रान्तीय और प्रगतिशील लेखक संघ का मंत्री भी रह चुका हूँ। इसलिए एक हद तक मेरी आलोचनायें उस समय की प्रगतिवादी मान्यताओं का प्रतिनिधित्व करने वाली मानी जा सकती हैं।’’(माक्र्सवाद और प्रगतिशील साहित्य, पृ0 312) संगठन, लेखन और सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्रों में अत्यधिक सक्रिय होने के बावजूद रामविलास अत्यन्त विवादास्पद बने रहे और उन्हें आलोचकों का सर्वाधिक विरोध झेलना पड़ा। उसका मुख्य कारण मेरी समझ में रामविलास की उपर्युक्त धारणा ही है-’’मेरी आलोचनायें उस समय की प्रगतिवादी मान्यताओं का प्रतिनिधित्व करने वाली मानी जा सकती है। इस धारणा का सीधा मतलब होता है कि अन्य प्रगतिशील या माक्र्सवादी आलोचकों की मान्यताओं को गलत मानना चाहिये। लेकिन आलोचना के क्षेत्र में, मान्यता के क्षेत्र में क्या यह सम्भव है कि किसी एक व्यक्ति की आलोचना या मान्यताओं को प्रतिनिधि के रूप मेें स्वीकार कर लिया जाये? मेरे विचार से यह उचित नहीं है।’’(माक्र्सवाद और प्रगतिशील साहित्य, पृ0 312)
अब सन् 1949 के भिवण्डी सम्मेलन में स्वीकृत घोषणा पत्र पर गौर करें। रामविलास ने 1949 के घोषणा-पत्र के विषय में लिखा है- ’’प्रगतिशील साहित्यिक आन्दोलन के समूचे इतिहास को ध्यान में रखते हुए 1949 का घोषणा पत्र तैयार किया गया। निषेधात्मक दृष्टिकोण को त्यागकर प्रगतिशील लेखकों के 1949 के घोषणा पत्र में पहली बार कहा गया था,-’’प्रगतिशील लेखक प्राचीन साहित्य एवं संस्कृति के सच्चे उत्तराधिकारी हैं और मानव सभ्यता की सर्वश्रेष्ठ परम्पराओं को आगे ले जाते हैं।’’(प्रगतिशील कव्यधारा एवं केदारनाथ अग्रवाल, पृ0 26) इस वाक्य में जो घोषणा है, वह बिल्कुल सही है। लेकिन भिवण्डी सम्मेलन की जो राजनीतिक स्थापना है, वह इससे भिन्न है। इस घोषणा पत्र के आरम्भ में ही कहा गया है, ’’आज भारतीय साहित्य के विकास में निर्णायक परिवर्तन हो रहे हैं। पहले की अपेक्षा कहीं ज्यादा तीक्ष्ण रूप में प्रगतिशील और प्रगति विरोधी प्रवृत्तियाँ एक दूसरे के मुकाबले पर खड़ी हैं।’’(प्रगतिशील कव्यधारा एवं केदारनाथ अग्रवाल, पृ0 26) इससे इस बात का पता चलता है कि भारतीय जनता की जनतंत्र और समाजवाद की लड़ाई ने एक बड़ा मोड़ लिया है।
भाषा-अस्मिता तथा कम्युनिष्ट पार्टी की कुछ अन्य नीतियों को लेकर खासे विवाद चल रहे थे। रामविलास जी ने जैसा कि उनका स्वभाव है, इसे जोश, तीक्ष्णता और तार्किकता के साथ अपनी बातें कहीं। वे साफगोई को पसन्द करते हैं। ’किन्तु-परन्तु’ वाली भाषा उन्हें पसन्द नहीं है। लिहाजा परिणाम यह हुआ कि वह बहुत सी आलोचनाओं के केन्द्र में आ गये और उनके खिलाफ एक प्रकार का निन्दा-अभिमान ही चल निकला एवं दिल्ली अधिवेशन में प्रगतिशील लेखक संघ के महासचिव पद से हटाते हुए रामविलास शर्मा को माक्र्सवादी पार्टी से भी निकाल दिया गया। इस समय उनकी आलोचना में रामविलास जी खुद मानते हैं कि खट्टरता ज्यादा थी, शायद इसीलिए उनके मित्र अमृतलाल नागर इसे ’मारधाड़ वाली आलोचना’ कहते हैं। रामविलास जी के इस तरह के कई लेख पढ़ने के बाद अमृतलाल नागर ने उन्हें सलाह दी थी- ’’जो भी कुत्ता तुम्हारी ओर देखकर भौंके, उसे क्या लाठी लेकर मारने दौड़ोंगे, फिर तो जीवन भर यही करते रह जाओंगे। कुछ ठोस काम क्यों नहीं करते’’(सं. सुभाष सेतिया-आजकल, अपै्रल, 2000, पृ.20) और उसके बाद सचमुच रामविलास जी की लेखन यात्रा में एक बड़ा बदलाव दिखाई पड़ता है।
’भाषा और समाज’ का प्रकाशन 1961 में हुआ, भाषा में समाज सरीखे अत्यन्त गहन विषय पर डाॅ0 शर्मा का यह एक महत्वपूर्ण मौलिक ग्रन्थ है। इसमें सामाजिक विकास के सन्दर्भ में भाषा के विकास का अध्ययन करते हुए भाषाशास्त्र एवं समाजशास्त्र की अनेक मान्यताओं का गहन विद्वता के साथ खण्डन-मण्डन किया गया है। सैद्धान्तिक विवेचन के अलावा इसमें भाषा सम्बन्धी अनेक व्यावहारिक समस्याओं का भी विवेचन है। उदाहरण के लिए भारत की राजभाषा एवं राष्ट्रभाषा की समस्या अहिन्दी भाषी प्रदेशों में असन्तोष के कारण क्या भारत की सभी भाषायें राजभाषा बनेंगी? क्या अंग्रेजी विश्वभाषा है? और क्या उसके बिना हमारा काम नहीं चल सकता? आदि प्रश्नों पर भी प्रकाश डाला गया है। यह पुस्तक न केवल भाषा-विज्ञान का शास्त्रीय अध्ययन करने वालों के लिए बल्कि उन पाठकों के लिए भी उपयोगी हैं जो इन समस्याओं में गहरी दिलचस्पी रखते हैं।
’आस्था एवं सौन्दर्य’ रामविलास शर्मा की मूल्यवान आलोचनात्मक कृति है जो भारोपीय साहित्य और समाज की क्रियाशील ’आस्था और सौन्दर्य’ की अवधारणाओं का व्यापक विश्लेषण करती है। इस सन्दर्भ में रामविलास जी के इस कथन को रेखांकित किया जाना चाहिये कि अनास्था और सन्देहवाद का कोई दार्शनिक मूल्य नहीं है, बल्कि यह यथार्थ जगत की सत्ता और मानव संस्कृति के दीर्घकालीन अर्जित मूल्यों के अस्वीकार का ही प्रयास है। उनकी स्थापना है कि साहित्य एवं यथार्थ जगत का सम्बद्ध सदा से अभिन्न है और कलाकार जिस सौन्दर्य की सृष्टि करता है, वह किसी समाज-निरपेक्ष व्यक्ति की कल्पना की उपज न होकर विकासमान सामाजिक जीवन से उसके घनिष्ठ सम्बन्ध का परिणाम है। रामविलास की इस कृति का पहला संस्करण 1961 में प्रकाशित हुआ था। इस संस्करण में दो नये निबन्ध शामिल हैं। एक ’गिरजा कुमार माथुर की काव्य यात्रा के पुर्नमूल्यांकन’ और दूसरा ’फ्रांस की राज्यक्रान्ति तथा मानवजाति के सांस्कृतिक विकास की समस्या’। इन विस्तृत निबन्धों में लेखक ने दो महत्वपूर्ण सवालों पर खासतौर से विचार किया है कि क्या मानव जाति के सांस्कृतिक विकास के लिए क्रान्ति आवश्यक है? और फ्रांस ही नहीं रूस की समाजवादी क्रान्ति भी क्या इसके लिए जरूरी थी? कहना न होगा कि समाजवादी देशों की उथल-पुथल के सन्दर्भ में इन सवालों का आज विशिष्ट महत्व है।
’निराला की साहित्य साधना (जीवनी खण्ड)’ में ’निराला के परिवार में अनेक मौतों वाली घटना’, अनाथ भतीजों को पालने के लिए भयंकर संघर्ष भरे दिनों और ’भावों की भिडन्त’ वाले आन्दोलन तथा ’सिफलिस’ से पीडित नायक निराला के ’पतन’ वाले दिनों का बड़ा ही मार्मिक विवरण अंकित हुआ है। ’भावों की भिडन्त’ लेख के प्रकाशन से युगान्तकारी प्रतिभा का धनी सूर्यकान्त ’बंगाली कविताओं का भाव चुरानेवाला’ वतलाया जाकर मजाक का पात्र बन गया था। रामविलास अपने चरित नायक का चित्रण खासतौर से उसके कठिन क्षणों में बड़ी ही अन्तरंगता एवं कलात्मकता से किया है। उनका कलकत्ता जीवन, समन्वय और मतवाला-मण्डल के दिन, निराला उग्र का आपसी ईष्र्या द्वन्द, सब-कुछ बहुत सजीव रूप से पुस्तक में अंकित किया गया है। वे दिन चूँकि निराला के साथ-साथ छायावाद के उदय काल के भी थे। इसलिए हिन्दी साहित्य का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण इतिहास काल एक बार फिर से हमारे सामने स्पष्ट अभर आता है। इस प्रकार एक व्यक्ति के जीवन नाटक के साथ एक समाज की साहित्यिक क्रान्तिगत विचारधारा रस बनकर औसत साहित्यचेता पाठक तक को पुस्तक में सहज ही मिल जाती है।
रामविलास शर्मा द्वारा रचित कालजयी पुस्तक ’महावीर प्रसाद द्विवेदी और हिन्दी नवजागरण’ में पाँच भाग हैं। पहले भाग में भारत और सम्राज्यवाद के सम्बन्ध में द्विवेदी जी और सरस्वती के लेखकों ने जो कुछ कहा है उनका विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है, दूसरे भाग में रूढ़िवाद से संघर्ष, वैज्ञानिक चेतना के प्रसार और प्राचीन दार्शनिक चिन्तन के मूल्यांकन का विश्लेषण है। तीसरे भाग में भाषा समस्या को लेकर द्विवेदी जी ने जो कुछ भी लिखा है उसकी छान-बीन की गयी है। चैथे भाग में साहित्य सम्बन्धी आलोचना का परिचय दिया गया है, पाँचवें भाग में द्विवेदी युग के साहित्य की कुछ विशेषताओं की ओर संकेत किया गया है। बहुत सी समस्यायें जो द्विवेदी जी के समय में थी आज भी विद्यमान हैं। इसलिए आज के संदर्भ में इस पुस्तक की सार्थकता एवं उपयोगिता और भी बढ़ गयी है।
’परम्परा का मूल्यांकन’ प्रगतिशीलता के सन्दर्भ में परम्परा बोध एक बुनियादी मूल्य है फिर चाहे इसे साहित्य के परिप्रेक्ष्य में रखा-परखा जाये अथवा समाज के। दूसरे शब्दों में बिना साहित्यिक परम्परा को समझे न तो प्रगतिशील आलोचना और साहित्य की रचना हो सकती है और न ही अपनी ऐतिहासिक परम्परा से अलग रहकर कोई बड़ा सामाजिक बदलाव सम्भव है लेकिन परम्परायें जो उपयोगी और सार्थक है उसे उसका मूल्यांकन न किये बिना नहीं अपनाया जा सकता। यह पुस्तक परम्परा के इसी उपयोगी और सार्थक की तलाश का प्रतिफलन है। सुविख्यात समालोचक रामविलास शर्मा ने जहाँ इसमें हिन्दू जाति के सांस्कृतिक इतिहास की रूपरेखा प्रस्तुत की है वहीं अपने-अपने युग मे विशिष्ट भवभूति और तुलसी की लोक विमुख काव्य-चेतना का विस्तृत मूल्यांकन किया है। तुलसी के भक्ति-काव्य के सामाजिक मूल्यों का उद्घाटन करते हुए उनका कहना है कि दरिद्रता पर जितना अकेले तुलसीदास ने लिखा है उतना हिन्दी के समस्त नये पुराने कवियों ने मिलकर न लिखा होगा। भवभूति के सन्दर्भ में रामविलास का यह निष्कर्ष महत्वपूर्ण है कि ’’यूनानी नाटककारों की देव सापेक्ष न्याय व्यवस्था की जगह देव निरपेक्ष न्याय व्यवस्था का चित्रण शेक्सपियर से पहले भवभूति ने किया और रामायण, महाभारत के नायकों के विषय में यह कि राम और कृष्ण दोनों श्याम-वर्ण के पुरूष हैं।’’ वस्तुतः इस कृति में आधुनिक साहित्य के जनवादी मूल्यों के सन्दर्भ में प्राचीन मध्यकालीन और समकालीन भारतीय साहित्य में अभिव्यक्त संघर्षशील जनचेतना के उस विकासमान स्वरूप की पुष्टि हुई है जो शोषक वर्णों के विरूद्ध श्रमिक जनता के हितों को प्रतिबिम्बित करता रहा है।
’भारत में अंगे्रजीराज और माक्र्सवाद’ नामक विशाल ग्रन्थ एक तरह से हिन्दी नवजागरण की सामाजिक पृष्ठभूमि को स्पष्ट करते हुए इस नवजागरण के बाद वाली मंजिलों की राजनीतिक ऐतिहासिक व्याख्या है। इस ग्रन्थ के अन्तर्गत भारत के इतिहास के विषय में ऐसी क्रान्तिकारी मान्यतायें प्रस्तुत की गयी हैं जो इतिहास का परिचित नक्सा ही बदल देगीं। इसके अतिरिक्त यह ऐतिहासिक ग्रन्थ साहित्य एवं संस्कृति के लिए भी प्रासांगिक है, जैसा कि द्वितीय खण्ड की भूमिका के इस कथन से अन्दाजा लगाया जा सकता है, ’’हमारी सांस्कृतिक स्थिति के एक छोर पर करोड़ों आदमियों की निरक्षरता है, दूसरे छोर पर हजारों बुद्धिजीवियों पर अमरीकी संस्कृति का प्रभाव है। क्या संगीत और फिल्में, क्या अर्थशास्त्र और भाषाविज्ञान, मनुष्य केा नैतिक पतन और प्रगति विरोधी मार्ग की ओर ले जाने वाली प्रवृत्तियाँ सब तरफ दिखाई देती हैं। अर्थतंत्र से लेकर भाषा और संस्कृति तक स्वदेशी की धुरी बनाकर एक शक्तिशाली साम्राज्य विरोधी राष्ट्रीय संयुक्त मोर्चे का निर्माण किया जा सकता है। ऐसा मोर्चा जनवादी क्रान्ति के शेष कर्तव्य पूरे कर सकता है।’’ (भारत में अंग्रेजी राज और माक्र्सवाद, पृ0-24)
लब्ध प्रतिष्ठ प्रगतिशील आलोचक रामविलास शर्मा ने ’भारतेन्दु हरिश्चन्द्र एवं हिन्दी नवजागरण की समस्यायें’ पुस्तक में आधुनिक हिन्दी साहित्य के जनक भारतेन्दु हरिश्चन्द्र के जीवन और साहित्य सम्बन्धी जीवन्त तथ्यों को ऐसे रूप में प्रस्तुत किया है कि आज की अनेक समस्याओं का भी समाधान मिल सके। भारतेन्दु युगीन हिन्दी नवजागरण की समस्याओं पर विस्तार से विचार करते हुए इस पुस्तक में यह प्रतिपादित किया गया है कि भारतेन्दु हिन्दी को जातीय परम्परा के संस्थापक हैं और मुख्यतः उनकी बताई हुई दिशा में चलकर ही हमारा साहित्य उन्नति कर सकेगा। पुरानी पत्र-पत्रिकाओं एवं दुर्लभ पुस्तकों में ढके पडे अनेक महत्वपूर्ण तथ्यों को पहली बार प्रकाश में लाकर डाॅ0 शर्मा ने भारतेन्दु का सर्वथा मौलिक चित्र पुनर्निमित किया है, जो बहुतों के लिए चैकाने वाला सिद्ध हो चुका है। दो अध्यायों में भारतेन्दु के नाटकों पर विस्तार से विचार करने के साथ उनकी कविता, उपन्यास, आलोचना, निबन्धकला एवं पत्रकारिता का भी आलोचनात्मक परिचय दिया गया है। इस संस्करण के लिए विशेषरूप से लिखित ’’भारतेन्दु हरिश्चन्द्र और हिन्दी नवजागरण की समस्यायें शीर्षक एक नये अध्याय ने पुस्तक को और भी संग्रहणीय बना दिया है। वास्तव में भारतेन्दु साहित्य सम्बन्धी सभी पक्षों की प्रमाणिक जानकारी के लिए यह अकेली पुस्तक पर्याप्त है।
’माक्र्स एवं पिछड़े हुए समाज’ हिन्दी के सुविख्यात समालोचक, भाषाविद् और इतिहासवेत्ता रामविलास शर्मा का यह महत्तम् ग्रन्थ ’भूमिका’ और ’उपसंहार’ के अलावा आठ अध्यायों में नियोजित है। इनमें से पहले में उन्होंने आधुनिक चिन्तन के पुरातन श्रोतों, माक्र्स के ’व्यक्तित्व निर्माण’ की दार्शनिक पृष्ठभूमि तथा माक्र्स-एंगेल्स की धर्म विषयक स्थापनाओं के प्रति ध्यान आकर्षित किया है। इससे सौदागरी, पूँजी की विशेषताओं के सन्दर्भ में सम्पत्ति एवं परिवार-व्यवस्था की कतिपय समस्याओं का विवेचन हुआ है। तीसरे में, मध्यकालीन यूरोपीय ग्राम समाजों और भारतीय ग्राम-समाजों में भिन्नता को रेखांकित किया गया है। चैथे में प्राचीन रोमन यूनानी समाज और प्राचीन भारतीय समाज में श्रम-सम्बन्धी दृष्टि-भेद का खुलासा हुआ है। पाँचवें में, माक्र्स-एंगेल्स पर हीगेल के दार्शनिक प्रभाव के बावजूद इतिहास-सम्बन्धी उनकी स्थानाओं में अन्तर को विस्तार से विवेचित किया गया है। ताकि हीगेल के यूरोप केन्द्रित नस्लवादी इतिहास-दर्शन को समझा जा सके। छठा अध्याय माक्र्स, एंगोल्स और लेनिन के जनवादी क्रान्ति-सम्बन्धी विचारों, कार्यों से परिचित कराता है। सातवें में, क्रान्ति के पश्चात् सर्वहार अधिनायकवाद राज्यसत्ता में सर्वहारा पार्टी की भूमिका, फासस्त तानाशाही से लड़ने की रणनीति तथा राज्यसत्ता के दो रूपों-जनतंत्र एवं तानाशाही को अलगकर देखने की माँग है और आठवाँ अध्याय दूसरे विश्व युद्ध के बाद एशियाई क्रान्ति के सन्दर्भ में लेनिन की स्थापनाओं को गम्भीरता में न लेने के कारण साम्राज्य विरोधी आन्दोलन में विघटन का गम्भीर विश्लेषण करता है। संक्षेप में कहें तो रामविलास शर्मा की यह क्रान्ति विश्व पूँजीवाद और उसके सर्वग्राही आर्थिक साम्राज्यवाद के विरूद्ध माक्र्सवादी समाज-चिन्तन की रोशनी में विश्वव्यापी पिछड़े समाजों के दायित्व पर दूर तक विचार करती है, ताकि समस्त मनुष्य जाति को विनाश से बचाया जा सकें।
भारतीय साहित्य और उसकी सामाजिक पृष्ठभूमि के विभिन्न पक्षों पर ’भारतीय साहित्य की भूमिका’ पुस्तक में नौ अध्याय हैं। भारत की रूढिवादी पुरोहित वर्ग और पश्चिमी संसार का वैज्ञानिक विचारक समुदाय भारतीय संस्कृति से सम्बन्धित अनेक मुद्दों पर एक मत हैं। दोनों के लिए ऋगुवेद ब्राम्हणों के द्वारा रचा हुआ धर्मग्रन्थ है और भारतीय समाज की मुख्य विशेषता है उसकी अपरिवर्तनशील वर्णव्यवस्था। भारत के रूढिवादी नहीं जानते, वे कितना वैज्ञानिक हैं, पश्चिमी संसार के वैज्ञानिक विचारक नहीं जानते, वे कितना रूढिवादी हैं। यह पुस्तक भारतीय साहित्य का संक्षिप्त इतिहास नहीं है। यहाँ भारतीय साहित्य और उसकी सामाजिक, सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के कुछ पक्षों पर विचार किया गया है। प्रश्न यह है कि देशी रूढिवादियों और पश्चिमी संसार के ’वैज्ञानिक’ विचारकों से अलग हटकर ऐसा रास्ता बनाया जायें जिस पर चलते हुए भारतीय साहित्य के और बहुत से पक्षों का वस्तुगत विवेचन किया जा सके। यह पुस्तक उसी रास्ते की शुरूआत है, उसकी आखिरी मंजिल नहीं।
’भारतीय संस्कृति और हिन्दी प्रदेश’ के पहले खण्ड की ’भूमिका’ की पहली पक्ति’ ’’भारत की प्राचीन संस्कृति का अध्ययन वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों में अत्यन्त प्रासंगिक हैं’’ और दूसरे खण्ड का अन्त भूमण्डलीकरण और उदारीकरण के विरोध से है। पुस्तक के दूसरे खण्ड को मैं और स्पष्ट कर देना चाहता हूँ। दूसरे खण्ड में तुर्क आक्रमणों से लेकर भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना और इसके बाद स्वाधीनता प्राप्ति तक सांस्कृतिक इतिहास की अनेक समस्याओं का विवेचन है। यही समस्यायें महत्वपूर्ण हैं, यह मेरा आग्रह नहीं है। ये भी विचारणीय है। डाॅ0 शर्मा की स्थापना है कि वास्तव में अधिकांश समस्यायें दूसरों ने प्रस्तुत की है। मैंने उनके दिये हुए तथ्यों के आधार पर अपनी ओर से टीका टिप्पणी भर की है। परिशिष्ट रूप में संस्कृति पर दो-एक अध्याय मूल इतिहास के अन्त में जोड़ दिये जाते हैं। ’भारतीय संस्कृत और हिन्दी प्रदेश’ रामविलास शर्मा के जीवनकाल में दो खण्डों में प्रकाशित चैदह सौ सतासी पृष्ठों की उनकी अन्तिम पुस्तक है, जो बीस अध्यायों के कुल एक सौ अट्ठावन अनुभागों में विभाजित है। इस पुस्तक में ऋगुवेद से लेकर बीसवीं सदी के अन्त तक के व्यापक काल-खण्ड की भारतीय संस्कृति और उसमें हिन्दी प्रदेश की भूमिका पर विचार किया गया है।
’भारतीय सौन्दर्य बोध और तुलसीदास’ में रामविलास शर्मा साहित्य के स्थाई-मूल्यों का अथवा यों कहें कि प्रगतिशील साहित्य, दर्शन एवं कला का अध्ययन करते हुए भारतीय चिन्तन की परम्परा को ठीक-ठीक समझाने की कोशिश करते हैं तथा इसके लिए वह खास करके वैदिक काव्य, भारतीय दर्शन, कला का इतिहास, मध्यकालीन भक्ति साहित्य और उसमें भी तुलसीदास आदि को विचार-विमर्श का आधार बनाते हैं। रामविलास शर्मा की इस पुस्तक में कुल छः अध्याय हैं- ’वैदिक कवियों का सौन्दर्य बोध’, ’भारतीय दर्शन और सौन्दर्य बोध’, ’नगर सभ्यता और कलाओं का विकास’, ’कला इतिहास’, कलाओं के इतिहास की समस्या’ और तुलसीदास का सौन्दर्य बोध’। परिशिष्ट के पाँच भाग हैं- पहले भाग में ’तुलसी की भक्ति, भक्ति आन्दोलन और तुलसीदास और ’तुलसी साहित्य के सामन्त विरोधी मूल्य’ पर विचार किया गया है। दूसरे हिस्से में साहित्य अकादमी में ’लेखक भेंट कार्यक्रम के तहत उनके द्वारा 11 जनवरी 1994 को दिये गये व्याख्यान और श्रोताओं से प्रश्नोत्तर के संवाद संकलित हैं। परिशिष्ट के तीसरे हिस्से में साहित्य अकादमी द्वारा महत्तर सदस्यता प्रदान किये जाने के अवसर पर दिये गये वक्तव्य का संकलन है। चैथे और पाँचवें हिस्से में क्रमशः उनकी प्रकाशित पुस्तकों की सूची एवं प्रमुख शब्दावलियों की अनुक्रमणिका दी गयी है।
डॉ.आनन्द कुमार यादव एवं श्रीमती किरन देवी
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