Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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पलकों पे हसीं ख्वाब की किरची समेट कर

 

पलकों पे हसीं ख्वाब की किरची समेट कर
साहिल से गोया लाई हो सींपी समेट कर

 

 

शायद के नाम उसका भी कल ताजमहल हो
रख ली दयारे-यार की मिट्टी समेट कर

 

 

उसने भी चाहतों का सफर खत्म कर दिया
मैंने भी रख दी आज लो चिट्ठी समेट कर

 

 

उसने भी सिपर डाल दी हुज्जत किये बगैर
मैंने भी रख दी चादरे-हस्ती समेट कर

 

 

उस बुलहवस के सामने तौबा तमाम उम्र
बैठी रही परों को इक तितली समेट कर

 

 

 

Aashti Tuba

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