पिछले पन्द्रह बरस में वहीं अपने आॅफिस की सबसे उॅची कुर्सी पर बैठे हुए, राधेमोहन जी ने अपनी कम्पनी के नाम को जिन बुलन्दियों पर पहुॅचा दिया था, उससे ज्यादा का तो वो सपना भी नहीं देख सकते थे। इन पन्द्रह बरसों में उनके उस आॅफिस की कुर्सियों पर बैठने वाले कुछ चेहरे जरूर बदल गये थे, पर राधेमोहन जी का रूआब आज भी बिल्कुल पहले की तरह ही बरकरार था। आॅफिस में उनके सवालों पर उन्हें मिलने वाले जवाबों का सिलसिला, उनकी जिन्दगी के लम्हों को आज तक सिर्फ और सिर्फ खुशी से खिलखिलाता आया था। पर आज अचानक से जैसे ही अगले साल के रिटायरमेन्ट का खयाल उनके दिमाग में आया था, आॅखों में हमेशा खिली सी रहने वाली चमक एकाएक चन्द पानी की बॅूदों में बदलकर उनके गालों पर खेल गयी थी।
राधेमोहन जी जब से आॅफिस मंे आये थे, उन्हांेने वहाॅ की हर चीज को बिल्कुल अपने घर की तरह करीने से सॅवारा था। आॅफिस में रहकर वहाॅ उन्होंने काम करने वाले हर एक व्यक्ति की सब कुछ सुनकर, उन्हंे अपने बच्चों की तरह प्यार किया था। सभी के काम की अपनी-अपनी अलग-अलग जरुरत को समझते हुए उन्हांेने हमेशा सबको पूरा सम्मान दिया और इसी आधार पर सबसे ज्यादा अहमियत उन्होंने जिस शख्स को दी थी, वो था हर किसी के काम की पहली कड़ी को शुरु करने वाला और फिर आखिरी कड़ी को संजो कर लाने वाला आॅफिस का इकलौता चपरासी गयाप्रसाद, जिसे सब ‘गया‘ कह कर बुलाते थे। गयाप्रसाद वो शख्स था, जिसे राधेमोहन जी तब से बिना किसी शिकायत के लगातार काम करते देखते आ रहे थे, जब से उन्होंने उस आॅफिस में आ कर पहली बार उस अपनी कुर्सी पर बैठकर, अपनी इस नयी जिंदगी का आगाज किया था। और आज जब उनके मन मंे इस आॅफिस को छोड़ने का खयाल आया था, तो सपनांे की इतनी सारी कड़ियों का एक साथ टूटने पर, आॅखों का भर आना तो बड़ी स्वाभाविक सी ही बात थी।
वैसे तो उस आॅफिस को छोड़ने में अभी एक लम्बा अर्सा बाकी था, पर राधेमोहन जी उन चन्द महीनांे के अर्से को अपनी जिन्दगी के लिए यादगार बना देना चाहते थे और इसके लिए उन्होंने अपने आॅफिस में एक पार्टी देने का मन बनाया था। उनका इरादा था कि आॅफिस में काम करने वाले हर शख्स को आने वाली किसी शाम में एक जगह पर इकट्ठा किया जाये और उन्हें अपनी तरफ से कुछ यादगार परोसा जाये। एक बार इरादा हुआ और फिर राधेमोहन जी ने अपने मन की ये बात दोपहर के खाने के समय सभी के बीच जा कर बोल भी दी। राधेमोहन जी उस आफिस की सबसे उॅची कुर्सी पर बैठते थे, तो भला कौन उनके मन की बात पर कोई सवाल उठाता! पर थोड़ी ही देर बाद, जैसे ही वो वहाॅ से सबके बीच से बाहर आये, सबको अचानक से अपनी-अपनी परेशानियाॅ याद आने लगीं। बैठे-बैठे ही वहाॅ मौजूद सभी लोग एक-एक करके आपस में एक दूसरे को अपनी परेशानियाॅ बताने लगे। किसी के बच्चे की तबीयत खराब थी, तो किसी के घर में मेहमान आने वाले थे, किसी की बीवी के मायके में शादी थी, तो किसी को अपने माॅ-बाप को तीर्थ-यात्रा पर भेजने के लिए तैयारी करनी थी और वहाॅ काम करने वाली औरतों को तो शाम को घर से बाहर निकलने की ही इजाजत नहीं थी। इस तरह कुल मिला कर, सभी को कोई न कोई समस्या थी, जो कि सिर्फ और सिर्फ राधेमोहन जी की पार्टी में आने से ही सम्बन्धित थी।
उधर राधेमोहन जी ने अपनी तरफ से पार्टी की तैयारियाॅ शुरु कर दी थीं। हालाॅकि सूरत से देखने में वो एक अधेड़ उम्र्र के आदमी लगने लगे थे, पर उनके खयालात आज भी बदलती हुई हर घड़ी के साथ एक नये नजरिये पर लगातार बदलते-ढलते रहते थे। और उनकी शख्सियत की उसी सच्चाई ने, पार्टी के लिए की जाने वाली व्यवस्था मंे उन सभी चीजों का इन्तजाम करवा दिया था, जिसकी आज की ये नयी पीढी हर एक पार्टी में आशा करती है। पर उसे राधेमोहन जी का पुराना ढर्रा ही कहा जा सकता था कि अपनी तरफ से हर इन्तजाम करने के बावजूद उन्होने सारी बातों को पूरे आॅफिस वालों के सामने सिर्फ एक राज बना कर रखा था। उनके उसी छिपाये गये राज की वजह से पार्टी का दिन, मौका, जगह वगैरह सब कुछ निश्चित हो जाने के बावजूद लोग अभी भी किसी न किसी तरह उस पार्टी से नदारद होने का तरीका ढूढॅने की तलाश में लगे हुए थे। दूसरी तरफ उस सारे चलते हुए घटनाक्रम से पूरी तरह अनजान राधेमोहन जी, मन ही मन लोगों को एक ‘सरप्राइज’ जैसी चीज देने का खयाल मंे जी भर कर खुश हुए जा रहे थे।
गुजरते हुए लमहों के कटने के बाद आखिरकार वो तय हुआ दिन भी आ ही पहुॅचा। राधेमोहन जी अपने परिवार के सारे सदस्यों को अपने इस आॅफिस-परिवार से मिलवाना चाहते थे। इसीलिए उन्होंने मौके पर खुद के पहुॅचने में हो सकने वाली देरी का स्पष्टीकरण लोगों को पहले से ही दे दिया था, जबकि वहाॅ आने वाले सारे लोग जल्दी से जल्दी पार्टी में शरीक होने की औपचारिकता को निभा कर, वहाॅ से वापस लौटना चाहते थे। लेकिन अब, जब लोग पार्टी के उस परिक्षेत्र में पहॅुच चुके थे, वहाॅ आॅखों के सामने का नजारा बिल्कुल ही अलग था। सभी मन ही मन इस बात पर खुद से नाराज हो रहे थे कि क्यों उन्होंने राधेमोहन जी की उस पार्टी में सपरिवार आने के निमन्त्रण का निरादर करते हुए, उन सब अययाशी वाली चीजों का मजा लेने से खुद के घर वालों को महरूम कर दिया था। पर उन्हीं मन मसोसते लोगों के बीच एक व्यक्ति और भी था, जो अपनी बीवी और छोटे से लेकर बड़े तक के पूरे पाॅच बच्चों के साथ, जिन्दगी में पहली बार एक शानदार पार्टी जैसी चीज के मजे ले रहा था। और आज उस गयाप्रसाद से कोई किसी भी तरह का काम भी नहीं कह सकता था, क्योंकि वो आज पहली बार काम करने वाला नहीं, बल्कि पार्टी में शरीक होने वाला शख्स था।
पार्टी की सुनिश्चित जगह पर अपनी-अपनी जल्दी की वजह से, दिये गये समय के काफी पहले से ही लोगो की भीड़ सी लग चुकी थी। राधेमोहन जी ने आने में होने वाली तय देरी की वजह से, अपनी अनुपस्थिति में पार्टी का सारा कार्य-भार संभालने का अवसर पहले ही अपने खास रामअवतार जी को दे दिया था। वहाॅ पार्टी के लिए तैयार परिक्षेत्र में अब जब ढेरों लोग इकट्ठा हो चुके थे, उन सारे लोगों को वहाॅ पर मौजूद उन ढेरों खाने-पीने के सामानों से दूर रखने का दुःस्साहस रामअवतार जी भला कैसे दिखा सकते थे। देखते ही देखते पार्टी के असली मुद्दे का वक्त शुरु होने तक, सब कुछ शुरू हो चुका था। लोग खाने-पीने के लिए सामने की गयी छोटी-मोटी चीजों पर झपटने का सिलसिला शुरु कर चुके थे। लोग वहाॅ उपलब्ध हर प्रकार के व्यंजन का लुत्फ उठाये जा रहे थे। हालात ये थे कि राधेमोहन जी के वहॅा पहुॅचने से पहले ही, व्यंजनों की अलग-अलग किस्मों के होने वाले सफाये को देख कर रामअवतार जी अब थोडे़-थोड़े चिन्तित से नजर आने लगे थे। वो सब परिस्थितियाॅ देखकर ही काफी सोंच-विचार के बाद, अब आखिरकार रामअवतार जी को पार्टी के लिए खासतौर से मंगवाया गया वो राम-बाण निकलवाने का फैसला भी लेना ही पड़ा, जिसके लिए वो अभी तक राधेमोहन जी का इन्तजार कर रहे थे।
पार्टी के माहौल में शराब नाम की चीज के आने की खबर सुनते ही जवान दिलो में एक खुशी की हलचल सी मचने लगी। मौका अच्छा था, इसलिए जिन लोगों को आज तक किसी न किसी पारिवारिक या किसी आर्दशवादिता की वजह से इस बला को हाथ लगाने तक का मौका नहीें मिला था, वो सभी भी अपना हाथ आजमाने को तैयार थे। सभी के दिल में अलग-अलग तरह के ख्यालों से हल्की-हल्की धक-धक शुरु हो चुकी थी और उन्ही हालातांे में पार्टी में आये उन खास मेहमानो ने भी अपना रंग दिखा दिया। खेल-खेल में ही गयाप्रसाद जी के सुपुत्रों ने काली मदहोशी से भरी दो-चार बोतलों को दूसरे रंगीन पानी में मिला दिया, जो वहाॅ पर विशेषकर सुरा के सुरांे से दूर रहने वाली महिलाओं और कुछ उम्रदराज से लोगों के लिए सहेज कर रखा गया था। खामोशी से किया गया काम खामोश बना रहा और थोड़ी देर में पार्टी की रंगीनियता के लिए लाई गयी उन सारी रंगीन चीजो ने रामअवतार जी के इशारे पर अपना रंग दिखाना शुरु कर दिया।
पार्टी के लिए लाई गई शराब का असर राधेमोहन जी के रुआब की ही तरह जोरदार था। शराब से मूलतः दूर रहने वाले के हलक से जैसे ही दो चार बूॅदे नीचे उतरीं, उसका मदहोशी भरा नशा सभी के सर पर चढ कर बोलने लगा और फिर उन बोलने वालांे का सिलसिला कुछ इस तरह शुरु हुआ-
गयाप्रसाद:- अवतार साहब! ये अपने खडूस बुड्ढे का मिजाज इतना रंगीन है, मंैने कभी सोंचा ही नहीं था।
राम अवतार:- श्श्श्श्श्श्श्श्श्श्! दीवारों के भी कान होते हैं और यहाॅ तो कान ही कान हैं। पर गया! एक बात तो है। तुम कह सच रहे हो ।बुड्ढे ने अपनी इतनी खतरनाक सोंच का राज तो कभी मुझे भी पता नही चलने दिया।
और तभी वहीं पास में खड़ी हो कर झूम रही शालिनी मैडम के कानों में जैसे ही ये उड़ती हुई बातें पड़ीं, कुछ बोलने को मचल रहे उनके होठ भी हिलने ही लगे-
‘‘हाॅ! आफिस के कपड़े, बात करने के लहजे ‘हिच्च’ और... .... और वो ‘मैडम प्लीज......!’ कहने से तो कभी लगता ही नहीं कि बुड्ढा इतना ‘हिच्च’.... ....‘‘
अभी शालिनी मैडम की बात खत्म भी न हुई थी, कि गयाप्रसाद ने मौके पर अपना शक जाहिर किया-
‘‘शालिनी मैडम! आप भी....! हम तो सोंचते थे कि हमारे आॅफिस की औरतें पीती नहीं ... ...। पर आपको देख कर तो लग रहा है.....!’’
शालिनीः- चुप रहो! बकवास मत करो! ‘हिच्च ’क्या लग रहा है तुम्हें ....‘हिच्च’?
राम अवतारः- अरे र्मैडम आप तो नाहक ही नाराज हो रही हो। पर एक बात कहॅू... गया सच ही कह रहा है। लगता है आज आपने भी लगे हाथ.... .... ही... ही....ही...!
शालिनी मैडम अब दोनों की बातें सुन कर थोड़ा सोंच में पड़ी दिखने लगी थीं, कि तभी खाने-पीने के अपने सख्त नियम पालन के लिए जाने वाले सिद्धार्थ बाबू भी कुछ लड़खड़ाते हुए अचानक रामअवतार जी से आ टकराए और फिर कुछ संभलते हुए से बोले-
‘‘ये अपने राधेमोहन जी ने कमाल की पार्टी दी है।हर चीज मजेदार है।जमीन पर जन्नत सा मजा आ रहा है। और.....और ये शर्बत...! ऐसा लग रहा है कि मैं शर्बत नहींत्र... मैं शराब की चुस्कियाॅ ले रहा हूॅ...। भई मजा आ गया सच में राधे जी....’’
पर इससे पहले बोलते हुए सिद्धार्थ बाबू के आगे की बात पूरी हो पाती, उनके कन्धे पर एक हाथ आ कर ठहर गया। हाथ रखने वाले उस शख्स की शक्ल देखने के लिए सिद्धार्थ बाबू पलटने की जेहमत उठाते उससे पहले ही वो गिरीश खुद ही उनके सामने आते हुए बोला-
‘‘ये क्या ‘जी!‘, ‘जी!‘ लगा रखा है ? बुड्ढा पिछले पन्द्रह सालांे से कुर्सी पर जमा हुआ बैठा है। पन्द्रह सालो में इतना कमाने के बाद एक पार्टी दी है। और बात करो तो.... नखरे तो ऐसे दिखाता है..... जैसे उसे कुर्सी पर जबरदस्ती बिठाया गया हो।’’
गिरीश की बात अभी पूरी हुई ही थी कि उसी वक्त उनके बीच पहुॅचने वाले श्रीधर ने भी मौके की नजाकत को देखते हुए अपने विचारों को व्यक्त कर ही डाला-
‘‘हाॅ! हाॅ......! राधेमोहन की बात कर रहे हो न...! बुड्ढे से छुट्टी माॅगो तो ऐसा रोता है, जैसे अपनी जेब से बाॅट रहा हो। मेरा बस चलता, तो उसको कुर्सी समेत ही... ...।’’
बात चल रही थी कि तभी राम अवतार जी ठहाका लगाते हुए बोल पडे़-
‘‘क्यों भाई, कुर्सी के पीछे क्यों पड़े हो? कुर्सी ही चली गई तो....! अभी वैसे भी आॅफिस का फंड काफी कम हो चला है..... और ऐसे में नई कुर्सी खरीदनी पड़ी तो... ...!‘‘
और ये वो वक्त था जब एकदम से सभी ने वहाॅ उनके पीछे आ कर खडे़ हो गए राधेमोहन जी के शब्दांे को अपने कानो में महसूस किया-
‘‘कौन सी कुर्सी खरीदने का इरादा बनाया जा रहा है, जरा हमें भी तो पता चले!’’
अभी तक खिलखिला रहे सभी चेहरे एकदम से खामोश पड़ गये। और तभी यहाॅ पर भीड़ सी लगी देखकर इघर को आयी अनीता मैडम ने लड़खड़ाते हुए कदमांे पर खुद को संभालते हुए अपनी तरफ से बड़ी धीमी आवाज में बोला-
‘‘अरे! बुड्ढा आ पहुॅचा।‘‘
मेेैडम के हिसाब से तो उनकी आवाज बहुत धीमी थीे, पर वो रंगीन पानी का जादू जो सभी की तरह उनके सिर पर चढ़ चुका था, उसने इस आवाज को इतना तेज तो कर ही दिया था कि उस वाक्य के काफी अंश राधेमोहन जी के कानों तक पहॅुच ही गये। पर वो सब परिस्थितियाॅ ही थीं कि ठीक इसी वक्त राधेमोहन जी के पीछे आकर चन्द लोग खड़े हो गये। राधेमोहन जी ने जैसे ही पीछे पलटकर उन्हें देखा, उन सभी के लिए अपने आॅफिस के लोगों की भीड़ के बीच जगह सी बनाते हुए, वो सभी को उनका परिचय देने में जुट गये। राधेमोहन जी के पीछे-पीछे आयी उन शख्सियतों में उनकी पत्नी राधिका देवी, सुपुत्र राकेश और सुपुत्री रमीला शामिल थे।
कुछ मिनटों तक चले परिचय-र्कायक्रम के उपरान्त राधेमोहन जी ने हमेशा की तरह वहीं खडे़-खड़े अपने सुझावों और उपदेशों का सिलसिला शुरु कर दिया। आज भी हमेशा की तरह वहाॅ मौजूद लागों में से कोई भी उनका ‘वो सब‘ सुनना नहीं चाहता था और खुद को बहुत खुशनसीब समझने वाले राधेमोहन जी की आज ये बदनसीबी थी कि उनकी तरफ से पिलाई गई सुरा ने सभी के सुरों को इस तरह व्यवस्थित कर दिया था, कि सभी एक स्वर में आज उनकी बकवास पर लगाम लगाने के लिए तैयार थे। और उसी बदनसीबी के साथ ही वो कुछ और बुरा भी आज ही उनकी किस्मत में लिखा था कि सुरा के नशे में डूबे लोग, अभी तक तो उनके सामने होने की वजह से चुप थे, पर मन ही मन राधेमोहन जी के परिवारीजनों के बारे में भी तरह-तरह के ख्याल उन सभी के अन्दर पनपने लगे थे।
लेकिन आज जाने क्या सोंच कर राधेमोहन जी ने अपनी छेड़ी हुई बात को, पहली बार बिना कुछ ज्यादा लम्बा खीचें, अपने व्यक्तिगत विचारों को वहीं खत्म करते हुए, श्रीमती जी को साथ ले कर लोगों के पास जा-जा कर उनकी व्यक्तिगत समस्याओं को पूछना शरु कर दिया। आॅफिस में काम करने वाले वो सारे लोग शुरु में उनके इस रुख को देख कर कुछ हैरान से थे, पर फिर साथ में श्रीमती जी के होने की बात पर ध्यान जाते ही सभी के ख्यालों की उथल-पुथल एकदम से शांत हो गयी। इस समय तक सभी के दिमाग पर सुरा का नशा पूरी तरह छा चुका था और नशे में डूबे वो सभी अलग-अलग कोनों पर खड़े हो कर, जाने कब से दिलो में दफन बातों को जुबान पर लाने पर खुद को काफी खुश और खुशकिस्मत महसूस कर रहे थे। ऐसे में बेचारे राधेमोहन जी का क्या कसूर था! वो जिस किसी कोने पर जाते, वहाॅ हर जगह ही किसी खडूस-बुड्ढे की बात चल रही होती... और राधेमोहन के पहुॅचते ही सभी कुछ घबरा कर एकदम से सिर्फ चुप हो कर रह जाते।
हर कोने से काफी निराश होने के बाद आखिरकार राधेमोहन जी को बेचारा गयाप्रसाद ही ऐसा शख्स दिखाई दिया, जो सभी से अलग अपनी बीवी और बच्चों के साथ खडे़ हो कर उन्हें न जाने क्या-क्या बताये जा रहा था। अपने आॅफिस के उस सबसे मेहनती आदमी को यॅू थोड़ा अलग सा खड़ा देखकर राघेश्याम जी, दिल में बची चन्द हमदर्दी की बातंे कहने उसके नजदीेक पहुॅचे तो उनको पल भर को तो अपने कानांे पर विश्वास ही न हुआ। पर सच्चाई वही थी कि अपने छोटे-छोटे बच्चों के सामने वो किसी बुड्डे को कई गन्दी-गन्दी गालियाॅ दे रहा था... और गया के एकदम पीछे पहुॅचते-पहुॅचते उन्हांेने उस बुड्ढे का नाम भी एक बार उसके मुॅह से निेकलते-निकलते सुन ही लिया-
‘‘राधेमोहन!‘‘
थोड़ी ही देर में पार्टी के उस प्रायोजक को पता चल चुका था कि वहाॅ पर लोगों के लिए रखवायी गयी शराब अपना रंग दिखा रही है और अब वहाॅ पर रूक कर अब उस शराब का लोगों पर चढा हुआ रंग देखने के अलावा कुछ किया भी नहीं जा सकता था। अपने घर वालांे को उस कड़वी सच्चाई से दूर रखकर, सभी के रंग देखने के लिए राधेमोहन जी ने अपनी श्रीमती और बच्चों को घर भेजने की सोंची, तो यह देखकर तो वो दंग ही रह गये कि बेटी रमीला पर आॅफिस का सबसे शरीफ शख्स सिद्वार्थ डोरे डालने की कोशिश में था और वहीं पर उनका बेटा राकेश, जाने क्या देखकर उनके आॅफिस की खूबसूरत बला अनीता के साथ एक कोने में अकेला खड़ा होकर खिलखिलाते हुए बातेें किये जा रहा था।
राधेमोहन जी ने किसी तरह पार्टी में चल रही हर चीज को नजरअंदाज करते हुए राकेश और रमीला को अपने पास बुलाकर, उन्हें राधिका देवी के साथ घर भेज दिया और फिर उस वक्त तक पार्टी में घूम-घूम कर सभी के नजरियांे का नजारा करते रहेे, जब तक पीने की वजह से एक-दो लोग बेहोश हो कर गिर न पडे़ और बाकी के लोगो में कुछ ऐसी बहसंे न शुरु हो गई, जिनका अन्जाम सब के बीच हाथापाई होना था। वहाॅ पर रहकर काफी कुछ देख लेने के बाद भी राधेमोहन जी को अभी कम से कम अपने रुआब पर पूरा भरोसा था, इसलिए एक-दूसरे से उलझ पड़े लोगों को देखकर उन्हंे रोकने के इरादे से वो भी हाथापाई के उस सफर में कूद पडे़। पर अगले ही पल उन्हंे उनके खयालों का जवाब मिल गया, जब सभी से लड़ रहे गयाप्रसाद ने उनके चेहरे पर दो चार मुक्के जड़ते हुए कहा-
‘‘ये बुड्डो का खेल नही!’’
वो बेचारे राधेमोहन जी सभी से दूर उस एक कोने में खड़े हो कर इस खेल को तब तक देखते रहे, जब तक हर कोई अपनी मनमानी पूरी करके पूरी तरह खामोश नहीं हो गया। आखिर में सभी को किसी न किसी तरह उनके घर की ओर भेज कर, राधेमोहन जी वहाॅ पर मौजूद पार्टी का इन्तजाम करने वाले लोगों से पार्टी के खर्चे का हिसाब-किताब कर के अपने घर को लौट आये।
अगले दिन आॅफिस में हर हफते के आखिरी में आने वाले छुट्टी का दिन था। रविवार के उसी मौके के चलते अभी तक कुछ-कुछ तबीयत की नासाजगी से परेशान, आॅफिस के किसी शख्स को उस दिन अपने घर के बिस्तर से उठने की जेहमत न उठानी पड़ी। पर उसके अगले दिन सभी रोज की तरह एकदम समय पर आॅफिस पहॅुचकर, अपनी-अपनी कुर्सी पर बैठकर काम में लगे हुए थे। ठीक रोज की तरह समय पर राधेमोहन जी का आना हुआ। पर आज राधेमोहन जी के रंग एकदम बदले हुए थे। बाल काले रंगे हुए थे, कपड़ो का रंग नौजवानों की तरह एकदम रंगीन था, बदन और कपड़ो पर लगाए गये इत्र की खुशबू दूर से ही पता चल रही थी और चेहरे पर दो दिन पहले लगी चोट के निशान कुछ हल्के-हल्के से नजर आ रहे थे। आॅफिस के अन्दर कदम रखते ही राधेमोहन जी एक कोने पर सर झुकाये खड़े गयाप्रसाद के सामने पहुॅचे और मुस्कुराते हुए से उससे बोले-
‘‘तो फिर! इस हफते आखिर में पार्टी........’’
-आशीष आनन्द आर्य
‘इच्छित‘
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