रोज की वही चिकचिक, रोज के वही मुसाफिर और उन सभी को उसी बस-स्टाप से लेकर उनकी मंजिल तक पहुँचाने वाली तेरह नम्बर की बस रोज की तरह आज भी अपने काम पर निकल पड़ी थी। बस के रूकते ही मुसाफिर धक्का-मुक्की के पूरे जोरों से अन्दर घुसे और बस चल पड़ी थी। हर बार की तरह दो-चार नये चेहरे उस भीड़ में शामिल होने के बावजूद, रोज के राहगीरों को उनकी तय जगह मिल चुकी थी। पर शर्मा जी को आज थोड़ी देर हो गयी थी। यही वजह थी कि रोज चन्दन की ताजा खुशबू से महकते बदन से सुशोभित होने वाली आगे की सीट का ेएक अजनबी सी महक के साये से आज रू-ब-रू होना पड़ा था। यही कारण भी था कि क्यों बेचारे शर्मा जी को आज पहली बार खडे़ होकर सफर करने वाले लोगों की भीड़ द्वारा बीच-बीच में धक्का मुक्की करने की प्रक्रिया का कारण कुछ-कुछ समझ में आ रहा था।
मुसाफिरों से खचाखच भरते ही बस रोज की तरह अपनी रफतार पर चल पड़ी थी। यात्रा के आरम्भ के अभी चार-छः मिनट ही बीते थे कि रफ्तार तेज करती बस के आगे, सड़क के बीचो-बीच बेहतरीन तरीके से खुदे गड्ढों ने अपना मुँह खोलना शुरू कर दिया। उम्र केे पचासवें बसंत के करीब पहुँच चुके शर्मा जी अभी तक तो किसी तरह अपने बदन का बोझ खुद के कदमों पर उठाकर खामोशी से खडे़ थे। गड्ढों के उफान ने जैसे ही अपनी मौजूदगी का नजारा शुरू किया, बस की छोटी सी जमीन पर कदम-कदम की जगह पर अपनी-अपनी दावेदारी पेश करने वाली शख्सियतों पर, शर्मा जी का वो चैड़ा बदन तरह-तरह से ढु़लकने लगा।
शर्मा जी की उम्र का ख्याल करते हुए, उनके बदन के लुढ़काव की वजह से काफी परेशानी होने बावजूद, किसी ने उन्हें गाली तो नहीं दी, फिर भी उन परिस्थितियों में जनता की आम-भाषा अर्थात् कोहनियों और पैरों के जूतों की दो-चार टक्करों का सौभाग्य तो उन्हें प्राप्त हो ही गया। जनता के इस बर्ताव से शर्मा जी ने अभी हैरान-परेशान होना शुरू किया ही था कि उनकी नजरों के सामने एकाएक काला सा अन्धेरा छा गया। जिन्दगी के अन्त की तरह लगने वाला ये लमहा एकदम से उनकी सारी सोच को परेशान कर गया। आज तक न तो कभी हार्ट-अटैक हुआ, न ही कैन्सर और न ही ब्रेन-टयूमर जैसी किसी खतरनाक बीमारी ने कभी अपनी मौजूदगी का अहसास कराया; तो फिर यूँ अचानक कैसे आँखों की रोशनी एकदम से धोखा दे गई, बात सोचने लायक थी। क्या बस इस जरा सी परेशानी से जिन्दगी हार गई? सब अभी शर्मा जी के दिमाग में चल ही रहा था कि तभी जिस सुरंग से होकर बस गुजर रही थी, उसमें लगे रोशनी के खम्भों में बिजली आते ही शर्मा जी के मन की सारी व्यथा का समाधान हो गया।
जिन्दगी अभी भी जीने के लिए कायम है, ये अहसास होते ही, पल भर को टूटा मोह-माया का जाल फिर से अपने बन्धनों को कसने लगा। लोभ की उन्हीं हथकड़ियों के वशीभूत होते ही शर्मा जी का हाथ जैसे ही अपने पिछवाडे़ पर लगी जेब में रखे पर्स को टटोलने पहुँचा, होश का मामला एक बार फिर से डगमगाने लगा। जेब में वो बेचारा पर्स था ही नहीं, जो अगले दो दिनों के शर्मा जी के बस के किराये का बोझ उठा रहा था। बेचारगी के इस लमहे में शर्मा जी ने अपनी व्यथित कथा को शोर मचा कर पेश करने की कोशिश भी की। परन्तु बस की उस भीड़ में वो शोर केवल एक आम सी बात थी। हाँ! शर्मा जी की हड़बड़ी ने आस-पड़ोस में खड़े लोगों के सम्मुख उनकी वो मंशा जरुर प्रस्तुत करा दी, जिसका व्यक्ति-दर-व्यक्ति आदान प्रदान होते-होते जब तक ड्ृाइवर महोदय के कानों तक पहुँची, बस का अगला स्टाप आ चुका था।
बस के रूकते ही सारी की सारी भीड़ पल भर में तितर-बितर हो बिखर गई। बस के खालीपन का फायदा उठाकर लपककर अपनी रोज की आगे वाली सीट पर बैठते ही शर्मा जी ने सहयात्रियों सम्मुख अपना विलाप शुरू कर दिया। विभिन्न अटकलें अपने-अपने अन्दाजों में सामने आने लगीं। बस को यूनियन के बनाये गये नियमों के आधार पर, रुट की अगली बस के वहाँ पहुँचने तक वहीं खड़ा रहना था। मौके का फायदा उठाकर, बस में चढ़े सारे नौजवान बाहर के नजारों से नजरों को खुशनसीब बनाने के काम में व्यस्त हो चुके थे। उसी लिहाज से बस के अन्दर बैठे सारे उम्रदराज लोगों के पास, अपनी बात कहने के लिए लाजिमी हालात मौजूद थे।
नजाकत भरे इस मौके पर सबसे पहला विचार प्रस्तुत करने वाले दिन के सबसे ज्यादा व्यथित व्यक्ति शर्मा जी ही थे-
’’ये आज-कल के लड़कों ने तो... हर चीज की परिभाषा ही बदल डाली है। अब इस बेचारे बस वाले को भी कहाँ तक दोष दिया जाये! इन्हें भी तो अपना पेट पालना है। और स्टूडेन्ट कन्सेशन के नाम पर सफर करने वालों की अपनी ही दादागिरी है। बस में भी चढें़गे, पैसे भी नहीं देंगे, और उन्हें बैठने की जगह भी चाहिए।‘‘
शर्मा जी की बात से पड़ोस की सीट पर अपनी बैठकी लगाये अनिल भाईसाहब भी पूरी तरह सहमत थे। उनकी जुबान भी काफी कुछ यही कह रही थी-
’’हाँ! भाईसाहब। हर तरफ ही दादागिरी ने जीना हराम कर रखा है। और चोरी तो चोरी, यहाँ सीनाजोरी भी चलती है। एक तो किराये के नाम पर आधे पैसे भी पूरे नहीं देंगें, और उस पर कुछ कहो तो जवाब होगा..... पैसे दिये हैं न!‘‘
चलते हुए इन्हीं तथ्यों के बीच एक और रोज के राहगीर खान-भाई भी बोल ही पडे़-
’’और, सबसे बड़ी बात तो ये है कि हर आवारागर्दी करने वाला स्टूडेन्ट है। किसको-किसको समझाया जाये, और किसको-किसको रोका जाये। सबके पीछे ही स्टूडेन्ट यूनियन है।‘‘
एक-एक करके ढेरों अटकलें, समाज की परेशानियों को उस वातावरण में लफ्जों की जुबान में ढालती रहीं। फिर एकाएक बस के कन्डक्टर की सीटी बज पड़ी। बस के जिस क्षेत्र में अभी तक जुबानी लफ्ज अपनी प्रक्रिया को पूरा कर रहे थे, वहीं भीड़ नाम की व्यवस्था पनपने लगी। एक बार फिर से धक्का-मुक्की जैसी स्वायत्ताएं प्रचलन में आ गयीं। शर्मा जी को बैठने के लिए हालाँकि इस बार बैठने के लिए रोज वाली सीट मिल चुकी थी, तथापि इसी भीड़ के प्रकोप से गायब हुए पर्स की टीस अभी हृदय में ताजा थी। जी तले दर्द के उसी अहसास में शर्मा जी का मुँह खुल पड़ा-
’’कोई अभी दादागिरी नहीं दिखायेगा। बस वही लोग चढें़गें, जो किराये के पैसे देंगें। चलो कन्डक्टर साहब! ये सारी फ्री की सवारी नीचे उतारो।’’
शर्मा जी अपने जुमले में अभी कुछ और लफ्ज भी जोड़ने वाले थे कि अचानक भीड़ के पीछे से एक आवाज बुलन्द होनी शुरू हो गयी-
‘‘कौन बोला बे! क्या बोला! फिर से बोल, कौन है? कौन है, किधर है ये बुडढा?’’ बोलते-बोलते जैसे ही बढ़ी सी दाढ़ी और नवाबी रौब से सजा, कपड़ों से काफी अमीर सा लगने वाला वो शख्स शर्माजी के सामने आया, एकदम से दोनों चेहरो पर खामोशी छा गयी। बस वाले तो पहले ही खमोश थे और उसी खामोशी के बीच अपना सर नीचे झुका कर वो नौजवान धीरे से बोला-
‘‘सॅारी पापा!’’
दो लफ्ज सुनते ही शर्माजीका सर खुद-ब-खुद नीचे की ओर झुकता चला गया।
थोड़ी देर तक बस में वही खामोशी छायी रही। शर्मा जी के अगल-बगल वाले, शर्मा जी के चेहरे को देखते रहे और फिर से बस का कंडक्टर ’’टिकट-टिकट‘‘ बोलते हुए बस में घूमने लगा। थोड़ी देर में वो शर्मा जी के पास भी पहँुचा, पर उसके मुँह से कुछ नहीे निकल पाया। उस दिन पहली बार शर्मा जी ने टिकट नहीं खरीदा, और कंडक्टर भी उनसे कुछ नहीं बोला। भीड़ से भर कर बस चल पड़ी और बस के दरवाजे के करीब खड़ा हो कर कंडक्टर चिल्लाने लगा-’’टिकट, टिकट, टिकट...।‘‘
अशीष आनंद आर्य
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