दिन दहाड़े
अढ़ाई बजे की तपन में
अँधेरा हो गया है
धुंध के घाघरे पहन कर
दौड़ रहे हैं बादल
बदहवास हो
पत्थरों और तिनकों की
घातक बारिश
जगा देती है धरा को
आकुल होकर
उठती है वो
धड़कते हृदय को संभालकर
ढकती है अपनी आवाज
आश्चर्य, रोष और दुःख के साथ
दुस्साहसी पर्वतों का
महायुद्ध अपने चरम पर है
फैली हुई लाल आँखों से
गुस्सा उंडेल रहें हैं वो
एक दूसरे पर
प्रतिद्वंद्वी को अपने गौरव से
अपदस्थ करने को उद्यत
दूर करना होगा धरा को
इन शक्तिशाली मूर्खों को
भरना होगा विवादों और आरोपों
की खाई को
रूई और प्यार से
परन्तु...
आसान नहीं है रक्ततलाई पर
पेण्ट करना मुहब्बत को
Ashish Bihani
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