मज़दूर नहीं, वो है मजबूर ...
(स्वरचित - अभिनव ✍????)
मज़दूर यानि श्रमिक,
परिश्रम का प्रतीक,
मेहनत का वैज्ञानिक,
अनथक दौड़ता जीव ।
चौबीसों घंटे मुशक्कत,
करता कर्म निष्कपट,
चले जाता धर्मपथ,
अद्भुत कला महारत ।
विकास इसीके कारण,
हर समस्या का निवारण,
तन मन करे है अर्पण,
अर्थव्यवस्था का ये दर्पण ।
भरी दोपहरी तपती धूप,
चाहे हो फिर वर्षा खूब,
ये काम में ही मशरूफ़,
है अतुलनीय ये अनूप ।
पसीना बहाके बनाए इमारत,
बांध, सड़क, कारखाने, छत,
पूरी करे हर किसी की चाहत,
इस स्तम्भ के बल पर भारत ।
गर्मी हो या चाहे सर्दी,
ख़ून से अपने सींचे धरती,
आत्मनिर्भर कि आजीविका चलती,
इसके हुनर से छठा बिखरती ।
सागर में जैसे नमक,
उतनी इसकी है चमक,
इसका योगदान आश्चर्यजनक,
इसकी आवश्यकता असीम अनंत ।
इसकी मगर है ये बदकिस्मत,
कोयले की खान में हीरे की कद्र,
बेगैरत होता बजाए फ़क्र,
इसके नहीं जज़्बात या हक ?
मलिन सियासत का ये मोहरा,
इससे धोखा एक ना दोहरा,
ज़ख्म घाव बड़ा ही गहरा,
पानी कब तक बोलो ठहरा ।
चक्रव्युह में गया है फंस,
दलदल में है गया धंस,
ना रो सके, ना सके है हंस,
हुआ असहाय, लाचार, बेबस ।
जिससे पूरा शहर खिला,
उसकी वफादारी का यही सिला ?
धरा से लेकर अंबर हिला,
कब थमेगा बागी सिलसिला ?
सीने के टुकड़े को किया है दूर,
चंद नोटों की खातिर हुज़ूर,
ना कोई दोष, ना उसका कुसूर,
मज़दूर नहीं, वो है मजबूर ...
मज़दूर नहीं, वो है मजबूर ... (४९)
स्वरचित - अभिनव ✍????
उभरता कवि आपका "अभी"
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