आज मुफ़्लसी में, कुछ भी नहीं दिखती है
कभी जूठन, कभी वो भी, नहीं मिलती है
जिसे कल के भारत की, भविष्य कहते हैं
वही आज गुमनाम हो, दर दर भटकती है
अब दर्द का मंज़र, कहाँ दिखता किसी को
बस ज़रूरत वोट के, लिए सिर्फ़ खलती है
हीन नज़रों से देखते, अब दुनियाँ वाले
अब तो बस्ती भी, यूँ इनको खटकती है
या ख़ुदा ! क्या ज़ुर्म हो गया ग़रीब होना?
जिंदगी अब पल पल काटे नहीं कटती है
एक एक दाने को, मोहताज़ इस ज़हां में
अब सुबह सिसकती और रात बिलखती है
ख़ुदा तू है तो ! 'अभी' की दुआ क़ुबूल कर
एक तिरे दम से ही, ज़िन्दगी पनपती है…
--अभिषेक कुमार ''अभी''
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