Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

चाँद को मुकम्मल, कर के आया है..

 

 

चाँद को मुकम्मल, कर के आया है..
ये चराग़.. कई आंधियो से गुज़र के आया है..

 

तेल नहीं, इश्क़ का उबटन लगाया है उसने..
तभी तो चेहरा, निखर के आया है..

 

मेरी नहीं, मेरे रक़ीब की ख़ातिर..
मेहबूब मेरा आज, संवर के आया है..

 

वक्त की नज़ाकत है, या इश्क़ है मेरा..
उनकी गलियो में दिल, ठहर के आया है..

 

इंसानियत के दिए में, ये मज़हब का तेल..
मशाल-ऐ-दोस्ती यहाँ तक, डर-डर के आया है..

 

 

अभिजीत शर्मा

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ