Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

है ‘आँगन की धूप’ गुलाबी ......प्रो. ओम राज़

 

पुस्‍तक : ‘आँगन की धूप’
कवि : आचार्य बलवन्‍त
प्रकाशक : सूर्य प्रकाशन मन्‍दिर, बीकानेर
नेहरू मार्ग, दाउजी रोड, बीकानेर
संस्करण : 2013, पृष्ठ : 80, मूल्य : 150 रुपए

 

 

 

आचार्य बलवन्त के कविता-संकलन ‘आँगन की धूप’ से प्राचीन यूनानी मुहावरा-‘पोएता नोसितुर नानफित अर्थात् कवि उत्पन्न होता है, बनाया नहीं जाता’ तथा प्लेटो के ‘आयन’ की ये पंक्तियाँ ‘कविता अदृश्य प्रेरणा की देन है, कला की नहीं’ स्वतः सत्य प्रमाणित हो जाते हैं। जीयस और मिनोसिन की छठी पुत्री पाली हिमनिया बलवन्त से छंदबद्ध कविताएँ रचवाती रहीं और माँ वीणावादिनी उनमें स्वर और लय भरती रहीं।

 


‘आँगन की धूप’ में छंदबद्ध व छंदमुक्त 52 रचनाएँ संकलित हैं। छंद के गुलाबी रंग और लय की नग्मनी के बीच अतुकांत कविताएँ अखरती हैं। शायद संग्रह के पर्याप्त विस्तार के लिए रचनाकार की यह अपरिहार्य विवशता थी।
बलवन्त के कवि में एक सफल गज़लकार होने की संभावनाएँ उपस्थित हैं। ‘अच्छा लगता है’ शीर्षक कविता में ‘अच्छा लगता है’ को रदीक बनाकर उन्होंने एक प्रभावपूर्ण कविता रची है, जिसका मुखड़ा गज़ल का एक अच्छा मतला हैः-
बच्चों का हँसना-मुस्काना अच्छा लगता है।

 

 


अभी हमें चिड़ियों का गाना अच्छा लगता है।

 

 

क्योंकि उन्होंने गज़ल को गीत में परिवर्तित करने का प्रयास किया है। इसलिए चार पंक्तियों में अंतिम दो गज़ल के मतले का रूप धारण किए हुए हैं और पूर्वगामी दो पंक्तियाँ गीत या नज़्म के दो पंक्ति के बंद के रूप में प्रयोग की गई हैं। यह कविता ‘थीमेटिक काव्योजन’ की दृष्टि से रुमानी नहीं, वरन इसकी काव्याभिव्यक्ति का मूल उत्स ‘नास्टलजिया’ (अतीत की ओर भावनात्मक वापसी) है। कवि का बचपन गाँव में व्यतीत हुआ है। इसलिए इसके अतीत के ग्रामीण परिवेश से संबंधित खेतों और खलिहानों से उठती गँवई महक ने कविता का आवरण ओढ़ लिया हैः-

 


सावन की रिमझिम बरसातें अच्छी लगती हैं,
खेतों-खलिहानों की बातें अच्छी लगती हैं,
बचपन का वह सफ़र सुहाना अच्छा लगता है।
अभी हमें चिड़ियों का गाना अच्छा लगता है।

 


‘होठों के अफ़साने’ ‘अभिलाषा’, ‘उम्मीदों का चाँद’, ‘पल दो पल का प्यार’, ‘असर’ आदि अन्य कई छंद में सजे गीत भी शिल्प के सूक्ष्मदर्शी परीक्षण के बाद गज़ल के पायदान पर ही खड़े नज़र आते हैं। गीत का मुखड़ा (प्रारंभिक पंक्तियों) या तो गज़ल का मतला होता है या फिर शेर।

 


हुआ है ये कैसा असर धीरे-धीरे।
चले जा रहें हम किधर धीरे-धीरे?

 


रूसों के अनुसार ‘प्रेम, यद्यपि भ्रम है, किन्तु प्रेम हृदय में जो भावना जागृत करता है, वह विलक्षण और महान होती है।’ संसार की प्रत्येक भाषा की सुन्दरतम कविताएँ इसी भावना की निश्छल अभिव्यक्ति का प्रतिफल हैं। मेरी दृष्टि में यदि कोई कवि युवावस्था में प्रेम की प्रयोगशाला के परीक्षण से वंचित रहा, अथवा उसे आशानुकूल अथवा आशा के विपरीत परिणाम प्राप्त नहीं हुए तो वह या तो जन्मजात विरक्त और संन्यासी होगा अथवा परिस्थिति का शिकार विसेंट वॉन गॉग (फ्रांस का प्रसिद्ध चित्रकार)- हू वान्टेड टू बी लव्ड, बट ऑनली फ्रस्टरेशन फलोड हिम। ‘पल दो पल का प्यार’ शीर्षक कविता में प्यार का गुलाबी संदर्भ है, किन्तु प्रेमाभिव्यक्ति शालीन ‘प्लेटानिक लवर’ की है, लम्पट कामुक जोगी के निर्लज्ज प्रणय निवेदन के कलुषित भाव से रिक्त। प्रेम को पूजा समझने वाला प्रेयसी के सम्मुख याचक ही बना रहता हैः-

 


बस अपने कुछ सपने दे दो, नहीं मुझे संसार चाहिए।
पल, दो पल की खुशी चाहिए, पल, दो पल का प्यार चाहिए।

 

 

‘क्यूँ चुप रहते हो’ शीर्षक कविता में राइगर्ड है गर्ड की रहस्यमयी ‘शी’ की तरह बलवन्त की प्रेयसी की धूमिल छाया का तो आभास होता है किन्तु वह रीतिकालीन श्रृंगारिक कविता की अभिसारिका के रूप में अवतरित नहीं होतीः-
मैंने तुझको जान लिया है।
देख लिया, पहचान लिया है।
पहले भी अच्छे लगते थे,
पहले से अच्छे लगते हो।
बोलो तुम क्यों चुप रहते हो?

 


श्वेद-बूँद और स्वाति-बूँद में अंतर है। तृप्ति तृष्णा में निहित सूफ़ियाना आनंदातिरेक(इश्के हक़ीकी का विरहानंद) को समाप्त कर देती है। ‘निस्तब्धता’ में विरह भावना की टीस अत्यंत सहज शब्दों में उभरी हैः-

 


सिसकियों की शाम लेकर,
सुबह का पैगाम लेकर,
रात जब भी मुस्कुरायी।
फिर तुम्हारी याद आयी।

 

 

संकलन की एक कविता ‘बाबा की चौपाल’ में कवि ने गाँव के संयुक्त परिवार के बँटवारे को बाबा की चौपाल का आश्रय लेकर घटित यथार्थ को अत्यंत मार्मिक अभिव्यक्ति दी है।
बाँट दी गई माँ की लोरी,
मुन्ने की बँट गई कटोरी,
भेंट चढ़ गया बँटवारे की पूजावाला थाल।
बरसों से सूनी लगती है बाबा की चौपाल।

 

 


वैयक्तिक चेतना जब निजी यथार्थ तथा अनुभवजनित सोच के तटबंध तोड़कर समिष्टवादी बन जाती है तो कविता में आसपास पसरी सामाजिक और सांस्कृतिक विद्रूपता स्वयं समाहित हो जाती है। बलवन्त के कुछ काव्यांश मेरी इस धारणा को पुष्ट करते प्रतीत होते हैं-
हर तरफ़ ख़ौफ़ का बाज़ार नज़र आता है।
मेरा मुंसिफ़ ही गुनहगार नज़र आता है।

 

 

सूनी सहमी दीवारों पर, छिटका मेरा खून देखकर।
टेढ़ी हुईं मेरी अंगुलियाँ, टूटे हुए नाखून देखकर।

हुईं मांगलिक वेदियां, जब मंत्रों से दूर।
तब से महंगा हो गया, चुटकी भर सिंदूर।।

 

 

बलवन्त की काव्य चेतना शासन और सत्ता के गलियारे से गुज़र कर राजनीति में व्याप्त भ्रष्टाचार को भी कविता का विषय बनाने के लिए अपने साथ ले आई है। काव्य संकलन में राजनीति और सत्ता को केन्द्रित करके कविताएँ रची गई हैं-
आए दिन घपला-घोटाला।
दाल में है काला ही काला।
झुग्गी-झोपड़ियों के अंदर,
सिसक रहा अरमान देश का।
क्या होगा भगवान देश का!

 


आचार्य बलवन्त उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल के सोनभद्र में जन्मे हैं। अपनी मातृभाषा अथवा पूर्वांचल के अपने विशिष्ट क्षेत्र की भोजपुरी का पुट लिए आंचलिक भाषा में एक कविता ‘काहें के माई’ रखी है। माई को संबोधित करके एक व्यथित और शोषित नारी की व्यथा को कवि ने अत्यंत सफलता से उकेरा हैः-
कइके गोहार आज होंकरैले गइया।
माई, काहें बिधना भयल बा कसइया?
कइसे करेजवा पे आरा चलावयलू?


(ज़मीदारी के कारिंदे (गोहार) कई लोगों की गायें हाँक कर ले गये। यह भगवान (बिधना) भी कसाई हो गया है। मैं अपने कलेजे (सीने) पर आरा कैसे चलवा लूँ? संकलन की अन्य अतुकांत छंदमुक्त कविताएँ भी अच्छी हैं।

 

 

प्रो. ओम राज़
255-भगवतीपुरम, आर्यन नगर
काशीपुर (उत्तराखण्ड)-244713
मो. 09412152856

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ