संतुलित जीवन में सौम्यता, सद्भावना, सदाचार एवं सद्वृत्ति जैसे सद्गुणों का प्रादुर्भाव होता है। वहीं असंतुलन की स्थिति में दुर्भावना, दुराचार एवं दुष्प्रवृत्ति जैसे दुर्गुण जन्म लेते हैं। परिवर्तन प्रकृति का नियम है किन्तु संतुलित एवं सातत्यपूर्ण परिवर्तन ही शुभ एवं कल्याणकारी होते हैं। असंतुलित एवं सातत्यविहीन परिवर्तन अशुभ, अमांगलिक एवं विध्वन्सकारी होते हैं। कलियों का खिलना, पक्षियों का कलरव करना, शिशुओं का किलकना (किलकारी मारना) नदियों का अपने प्रवाह में निमग्न होना, आराधक की अपने आराध्य के प्रति चातक भाव से एकनिष्ठता एवं साधक द्वारा आत्मलीन होना, सबके-सब संतुलन के श्रेष्ठ उदाहरण हैं।
संतुलन की क्रिया शैशवावस्था से शुरू होती है। शैशवावस्था में शिशु जितना सचेष्ट होता है, बाल्यावस्था, किशोरावस्था या प्रौढ़ावस्था में उतना नहीं रह पाता। घुटनों के बल चलनेवाला शिशु जब खड़ा होने की चेष्टा करता है तो उसकी भाव-भंगिमा देखते बनती है। शरीर और मन का सातत्यपूर्ण समन्वय इस अवस्था के उपरान्त फिर कहाँ देखने को मिले। घुटनों के बल चलनेवाला शिशु उठ खड़े होने की चेष्टा में समग्रतापूर्वक अपने मन को संयोजित कर देता है, किन्तु बाल्यावस्था की दहलीज पर पाँव रखते ही उसकी एकनिष्ठता क्षीण होने लगती है। क्रमशः वह सांसारिक लोभ लिप्सा से घिरने लगता है। अन्ततः उम्र के चौथे या पांचवें पड़ाव पर आते-आते उसे यह स्मृति नहीं रह पाती कि उसने शैशवावस्था में स्वयं को उठाने में किस समग्रता का निवेश (इन्वेस्टमेन्ट) किया था। उस समग्रता की ओर आँखें उठाकर नहीं देखता जो उसके सम्पूर्ण कार्य-व्यवहार की जननी है, उत्प्रेरिका है। उसका सारा जीवन अनायास सा प्रतीत होने लगता है। चलना-फिरना, बोलना-बैठना सब कुछ आदत की आवृत्ति जैसा लगने लगता है।
मैं उपरोक्त कथन के आलोक में शैशव संरक्षण पर सवाल नहीं उठा रहा हूँ। इसलिए कि यह बीमारी आज की नहीं, पीढ़ियों पुरानी लगती है। कोई भी माँ-बाप अपनी संतान को वही देता है, जो उसके पास है। हस्तांतरण का यही सिलसिला किसी क्रांतिकारी परिवर्तन के होने तक पीढ़ी दर पीढ़ी चलता रहता है।
क्या कारण है कि वह जो कभी अत्यन्त प्रफुल्लित एवं हर्षातिरेक से भरा था, आज वयस्क के रूप में द्वन्द एवं दुविधा के बीच थक हारकर अकर्मण्य सा हाथ पर हाथ धरे बैठा है? ‘सफलता एवं आनन्दोल्लास का सूत्र कब और कहाँ खो गया’ की स्मृति होती तो शायद खोजने का प्रयत्न भी करता। प्रौढ़ावस्था, जिसे परिपक्वता की अवधि के रूप में जाना जाता है, व्यक्ति उस अवस्था के पूर्व ही उद्विग्नता, कुंठा एवं निराशा का शिकार हो चुका होता है। आधुनिकता की अंधी दौड़ का यह भयावह सच हम सबके सामने प्रश्नचिन्ह के रूप में खड़ा है। आज हम बच्चों को खिलौने देकर शीघ्रातिशीघ्र खड़ा करने की कोशिश में लगे हुए हैं ताकि अंधी एवं निरुद्देश्य प्रतियोगिता में वे शामिल (सम्मिलित) हो सकें।
समय की माँग है कि शैशवावस्था में उन्हें खड़े होने के लिए खिलौने न देकर बार-बार उठने-गिरने दें ताकि वे अपने पैरों पर खड़ा होने की हिम्मत जुटा सकें। आपा-धापी के व्यवस्ततापूर्ण वातावरण में माँ-बाप अपने बच्चों को येन केन प्रकारेण उनके पैरों पर खड़ा करने की भूखी-प्यासी आतुरता लिए कमर कसे खड़े हैं, भले ही उनकी संतान जीवन के दो-चार कदम चलने से पहले ही लुढ़क जाये या चारो खाने चित्त हो जाये।
आचार्य बलवन्त
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