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Dr. Srimati Tara Singh
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संपूर्ण मानवता के लिए उपयोगी है मैत्री दिवस

 

कोई कह सकता है कि हम विश्व-मैत्री की बातें कर रहे हैं, पर आज तो राष्ट्र-रष्ट्र, प्रांत-प्रांत, समाज-समाज, परिवार-परिवार, घर-घर और व्यक्ति-व्यक्ति में विरोध की भावना व्याप्त है। तब फिर विश्व का प्रश्न ही कैसा? इस संदर्भ में मैं कहना चाहूंगा कि विरोध की भावना दो नहीं, एक ही होती है। चाहे वह छोटे क्षेत्र में हों, चाहे बड़े क्षेत्र में। विरोध-भावना व्यक्ति की अपनी आत्मा की ही उपज होती है। अतः उसे अन्मूलित करने का एक ही मार्ग है और वह यह कि लोग ‘मैत्री’ के मूल को समझें और उसे अपने जीवन में स्थान दें। ‘मैत्री दिवस’ जिस भावना का प्रतीक है, उसमें कोई व्यक्ति भी दूसरे व्यक्ति के प्रति विरोध नहीं रखेगा। तभी मैत्री की भावना को बल मिलेगा। इसका पहला कदम होगा-अपनी त्राुटियों के लिए व्यक्ति स्वयं दूसरों से क्षमायाचना करे। भला ऐसा कौन व्यक्ति होगा, जो क्षमा मांगने पर क्षमा नहीं देगा। संयुक्त राष्ट्रसंघ में अनेक देशों के प्रतिनिधि इसी उद्देश्य से आते-जाते हैं, पर ऐसा लगता है कि मौलिक बात को भुला दिया जाता है। इसीलिए यह आवश्यक है कि विश्व भर में एक दिन ऐसा मनाया जाए, जिसके माध्यम से संसार के सभी लोग मैत्री के महत्व को समझ सकें।
मैत्री-दिवस किसी एक समाज या एक देश के लिए नहीं हैं। हमें इसे अखिल विश्व के स्तर पर लाना चाहिए।
आज व्यक्ति-व्यक्ति में नहीं, राष्ट्र-राष्ट्र के बीच तनाव बढ़ रहा है। आज शांति के लिए युद्ध लड़े जा रहे हैं। संसार महायुद्धों को देख चुका है। केवल महायुद्धों को ही क्यों, उनके घातक परिणामों को भी भुगत रहा है। कोई नहीं चाहता कि शांति के नाम पर संसार हो। शांति-संधियां भी होती हैं, पर जब स्वार्थ आपस में टकराते हैं, तो मैत्री की भावना और संधियां किनारा ले लेती हैं, खाइयां पड़ जाती हैं। राष्ट्रसंघ की स्थापना ऐसी ही खाइयों को पाटने के लिए हुई थी, पर वह भी अपने उद्देश्य में पूर्ण रूप से सफल नहीं हो पाया है। ऐसे समय में हमारा कर्तव्य है कि हम युद्धग्रस्त मानव समुदाय को मैत्री की भावना के प्रति आमुख करें। इसी दृष्टि से दिल्ली में ‘मैत्री दिवस’ का प्रथम आयोजन किया गया था। फिर यह आयोजन अनेक स्थानों पर मनाया गया। इसका एकमात्र लक्ष्य था कि मानव को एक स्वार्थमुक्त मैत्री की भावना मिले।
भारत के प्रथम राष्ट्रपति डाॅ॰ राजेन्द्र प्रसाद ‘मैत्री दिवस’ के संदर्भ में यह चाहते थे कि- ‘...प्रत्येक राष्ट्र अपनी समस्याओं को मैत्रीपूर्ण ढंग से हल करे। ...आज के युग में ‘मैत्री दिवस’ के आयोजन का और भी महत्व बढ़ जाता है।’
हम जानते हैं कि अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए हथियारों को निमंत्रण देने की आवश्यकता नहीं। हम नहीं चाहते कि मानव-संहार हो। जब सभी लोग शांति की पुकार करते हैं, तो क्यों कुछेक राष्ट्रनेता अपने तुच्छ स्वार्थों के लिए युद्ध व अशांति को बुलावा देते हैं।
दरअसल युद्ध की भावना राष्ट्र से नहीं, व्यक्ति के मस्तिष्क से निकलती है। अतः मैं चाहता हूं कि प्रहार मूल पर ही हो, ताकि युद्ध की भावना ही न पनपे।
मैं मानता हूं कि कोई भी देश अपने हितों को छोड़ दे, यह संभव नहीं है। व्यक्ति-व्यक्ति के विचारों और स्वार्थों में अंतर हो सकता है, पर इससे आपसी संबंध कटुतापूर्ण हो जाएं-यह अनावश्यक है। प्रत्येक विचार में अनेकांत दृष्टि से कुछ समन्वय खोजा जा सकता है।
आज अशांत मनुष्य शांति की खोज में है। राजनीति की मृग-मरीचिका में उसे पद-लिप्स, आत्म-प्रशंसा और पर-निंदा की चकाचैंध ही मिली है। दूसरों की आलोचना करना सहज हो गया है। दूसरों को गिराना तो जैसे उनके लिए ‘आचारः प्रथमो धर्मः’-बन गया है। अधिकारों का दुरुपयोग करना जैसे जन्म-सिद्ध अधिकार हो गया है।
आज श्रम की प्रतिष्ठा मिट गई है। नैतिकता कोसों दूर चली गई है। बड़़प्पन का मापदंड संयम नहीं, अर्थ बन गया है। बड़प्पन की भूख सबमें प्रबल है।
यही हाल धर्म-सम्प्रदायों का हो गया है। धर्मनीति में घुसकर खुली आंखों से देखा जाए तो पायेंगे कि धर्म ने आडम्बर का कुत्सित चोगा पहन रखा है। धर्म की ओट में स्वार्थ साधा जा रहा है। भगवान सोने से ढका हुआ है, ज्ञान भी सोने से मढ़ा हुआ है। उपासना का केन्द्र वासना का केन्द्र बना हुआ है। धर्म को सम्प्रदाय की चहारदीवारी में बंदी बनाया हुआ है। व्यक्ति दिग्भ्रांत है और वह दिग्भ्रमित सा ही चला जा रहा है। कहीं पर उसे प्रकाश की कोई किरण नजर आए तो वह मुड़ने को तैयार है। व्रतों के वातावरण में ही पहुंच कर वह देखता है कि शांति का मार्ग संयम है, आत्म-नियंत्रण है, अपने द्वारा अपना अनुशासना है। धर्म का विशुद्ध रूप यही है। ऐसा धर्म ही सम्प्रदायवाद से परे है। जाति, रंग और लिंग के बंधनों से मुक्त है। राजनीति के रंगमंच से दूर है।
ऐसे ही वातावरण में मनुष्य सोच सकता है कि मैंने किसी के साथ मन-वचन-काया से जान या अनजान में कोई कटु व्यवहार तो नहीं किया? उसकी आत्मा उसे अपने-आप जवाब देगी। अगर ऐसा हो तो वह अपने अंतर की संपूर्ण निर्मलता एवं ऋजुता के साथ अपनी भूल के लिए क्षमा चाहे और दूसरे पक्ष को भी क्षमा करे। मैत्री का सुदृढ़ आधार यही हो सकता है।

 

 

 

 

प्रस्तुतिः ललित गर्ग

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