अब तक गुजरी जो भी शाम थीं,
मान न मान वो सभी तेरे नाम थीं......
तामीर किया था जो शहर वफादारों के लिए,
मेरे खुद की वफायें अब वहां गुमनाम थीं......
झिझक छोड़ता तो कदम कब के होते मंजिलों पर,
करता भी क्या गलियां रस्ते की कुछ बदनाम थीं ....
दिल, ज़स्बात औ मोहब्बत की कीमत न लगी,
मेरी मुफलिसी ही मुझ पर सेंकडो इलज़ाम थीं ......
बेहूदी तस्वीरों से सजे रिसाले थे खासे दामो में,
वहीँ दिन-औ-इमां की ढेरों किताबें बेदाम थीं......
चाहे कितना भी लिखूं मैं तखल्लुस `आदर्श,
बगेर तवज्जो के तेरे मेरी ग़ज़लें बेनाम थीं....
आदर्श
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