हिम्मत करो चलो की अकेले सफ़र करें।
किसने कहा सफ़र में कोई राहबर करें।
पहचानता है शहर का छोटा बड़ा हमें।
गर हम करें गुनाह तो ये किसके सर करें।
लुटते रहें हैं चूँकि यहाँ जान बूझ कर।
थाने में थानेदार को हम क्या खबर करें।
परदेश कोई भी नहीं जाता है शौक से।
मेरी जरूरतें ही मुझे दर बदर करें।
मै फिर से राहे इश्क में चल सकता हूँ मगर।
वो साथ अब निभाने का वादा अगर करें।
इज्ज़त यहाँ प मिलती है कपड़ों को देख कर।
सादा पसंद लोग कहाँ पर बसर करें।
बेजान सी ग़ज़ल है आदर्श बिन तिरे।
अब गुनगुना के आप हि इसको अमर करें।
.........आदर्श बाराबंकवी....
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