Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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इसे नादानी कहूं उनकी

 

    इसे नादानी कहूं उनकी या वो यही मुसलसल चाहते हैं ,

बो के फसाद के बीज, अमन ओ चैन की फसल चाहते हैं


दौलत की आँख को नहीं हजम हो रही गरीबों की बस्ती,
गिरा के आशियाँ उनके वहां वो अपना महल चाहते हैं.......


बातों की बेरुखी ने बढा दी हैं अपनों से दूरियां,
अब हरेक दिल में उतरने का रास्ता वो सहल चाहते है।


खुदगर्ज़ कितना हे खुदा के सामने भी इस दौर का आदमी ,
इक अगरबत्ती जलाई नहीं की तुरंत फल चाहते हैं .........


देता रहा हूँ दामने दोस्ती से जरुरत मंद को कुछ न कुछ
हैरान हूँ जो आज पा गए ,वो ही फिर वो कल चाहते हैं।


क्या फायदा इस आदर्श हुनर का जो बच्चों को सोना पडे भूखा ,
दो वक़्त की रोटी दिला सके जो अब हम ऐसी ग़ज़ल चाहते हैं,,,

 

 

 

,,,,,,आदर्श

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