शिकवा क्या उनका ,जो गम मिले मुझे अपने रहबर से,
सहेज रखे हैं ये सोच की मिलता है हरेक को मुकद्दर से.......
दिल लगाना तो दूर देखूं न पलट कर उसको,
बात ही बात में गिरा रख्खा हो जिसको नज़र से.....
मजबूत करो दिल को इस मतलबी दुनिया के मुकाबिल,
बहाओ न अश्कों को यूँही बात ,बेबात पे झर झर से.....
समझो की हमारी रौनकें हैं बुझुर्गों के दर्मिन्याँ,
बाद उनके चली जाती है,बहारें जैसे हरेक घर से......
घर का हरेक आदमी लौट आता नहीं जब तलक घर पे,
सहमा सहमा सा रहता हूँ,इक अनजाने से डर से.....
मां की दुवाओं के दामन ने कुछ यूँ ढका मुझ को,
महफूस रहा मैं ज़माने की बद हवाओं के असर से.......
मतलब से ही गले मिलते हैं इस दौर के लोग,
आदर्श बाज़ आये हम ऐसी दुनिया मैं बसर से.....
आदर्श
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