मैं इक आँगन का शज़र देख रहा हूँ चौथी पीढ़ी को धीरे धीरे,
दे के आंधी-ऐ-मोहब्बत सबको, झेल रहा हूँ हवा-ऐबेरुखी धीरे धीरे..........
देखी शादियाँ कई,व देख मुंडन संस्कार खुश भी बहुत हुआ अक्सर,
अर्थियां निकली जब गली से,तो रोया जार जार तो कभी धीरे धीरे......
फल लदे तो पत्थर बच्चों के झेले बहुत खुद के तन पर,कई कई बार,
उमको खुश होते देख,मैं भी मुस्कुराता रहा अख्सर धीरे धीरे,
शुद्ध भारतीय परिधानों में सजे संवरे लोग दिखते थे कभी,
अब पाश्य्चात्य संस्कृति में खोते लोगों को देखा धीरे धीरे.....
दोस्ती का मतलब दो जिस्म इक जान हुआ करता था कभी,
बदलते दौर में दोस्त ही दोस्त का कातिल देखा धीरे धीरे..............
प्रेम के अर्थ को उडा ले गयीं खुदगर्जी की हवाएं तमाम,
प्रेम को वासना में तब्दील होते अख्सर देखा धीरे धीरे...........
वो बाजरा वो गुड के पकवान गिराते थे परिंदे शाखों पे कभी,
अब तो परिंदों को पिज़्ज़ा खिलाते बच्चों को देखा धीरे धीरे .......
कहाँ निकलती थी रोटी इक गाय की तो इक कुत्ते की कभी,
आज के दौर में जरूरतमंद को भीअख्सर भूखा देखा धीरे धीरे....
मकान कैसा भी हो इक छत के नीचे ही रहा करते थे सभी,
उसी सहन में दिन बा दिन उठती दीवारें देखा धीरे धीरे......
मजदूर की बीबी तंगहाली में भी ढंकती है अपने कुल बदन को,
बढती दौलत के दरमियाँ कम होते कपड़ों को देखा धीरे धीरे............
और क्या बयां करूँ आदर्श, कब तलक अपनी बदनसीबी तुझसे,
सिहरता हूँ सोच कर अचानक कब चलेगा मुझपे भी आरा धीरे धीरे....
आदर्श
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