समझाएं क्या लिख लिख के गीत, ग़ज़ल, या रुबाईयों से,
स्तर गिरता ही जा रहा है आदमी का अब अच्छाईयों से..........
सुनी सबकी,पर खुद का जो दिल बोला वो करते गए,
लेना देना कुछ भी न रहा,किसी की रुसवाईयों से ....
माना दौलत जहाँ में सब कुछ नहीं,पर बहुत कुछ तो है,
पहचाना जाता अब आदमी इसी से,न की अच्छाईयों से......
आधुनिक साजों के दर्मिन्या भी उसका अपना वजूद है,
परखी जानते हैं की सुर कितने सुरीले हैं शेहनाई ओनसे.....
कोई भी रंज या ख़ुशी अब देती नहीं है धड़कन इसे,
दिल ऐसा लगा बेठा है अब दिल इन तन्हाईयों से....
माँ ही माँ नज़र आती है हर सु हरेक बात पर,
सोचता हूँ बात बचपन की जब भी दिल की गहराईयों से.......
शुक्रगुजार हूँ खुदा तेरा जो,मुकाम मुझे हासिल हुआ,
देखना कभी गिराना नहीं मुझे इन उचाईयों से....
.आदर्श
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