सुबह को कर या शाम कर,
कुछ लम्हे ख़ुदा के नाम कर ......
कमजोर चरागाँ जो बुझे कभी,
न हवाओं के सर इल्जाम कर ..
चंद लम्हों से लोगों के दिलों में हूँ,
वरना रख्खा था वक़्त ने गुमनाम कर........
दानिस्ता न देखा था तुम्हे कभी,
सरे महफ़िल न मुझे बदनाम कर.........
फ़िक्र करना माना की अच्छा नहीं,
पर कल के वास्ते कुछ इंतजाम कर.......
इससे पहले की बंद जुबाँ बढ़ाये दूरियां,
खुद पहल कर के क्यूँ न कलाम कर ......
पीछे पड़ती नजर-ऐ-ख़ुदा शायद देर से,
क्यूँ न खुद को ही इक इमाम कर......
माँ यूँ तो रूठती नहीं फिर भी गर लगे,
उसको मानाने के जतन तमाम कर......
इतने धोखों के बाद भी लगाता सब को गले,
आदर्श कुछ तो भले बुरे की पहचान कर .......
आदर्श
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