Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

ता उम्र मैं बचता रहा ऐसे रिश्तों की तामीर से

 

ता उम्र मैं बचता रहा ऐसे रिश्तों की तामीर से,
हमख्याल जो कभी न हुए, मेरे ज़मीर से........


न हीं कुछ पाने की फ़िक्र,न कुछ खोने का गम,
ज़िन्दगी मुसलसल जीते रहे हम इक फकीर से......


उन्हें बादशाही का गुरूर तो मुझे हौसला अपनी फाकामस्ती का,
कुछ भी गिला शिकवा न रहा मुझे,खुद की तकदीर से.......


झूट -ओ - फरेब से चलता तो दौलत हमकदम होती मेरी,
रहा सच के दायरे में कैद,खुद की खिंची लकीर से.....................


सच बोलने का असर हर तरफ नुमांया है मेरे दीवारों दर पर,
टूटी दीवारों का प्लास्टर,व टुकड़े गिरा करते हैं शेह्तीर से......


खुद भूखा न रहूँ व निवाला मयस्सर हो घर में मेहमान के लिए,
अख्सर दुवाओं में यही माँगा करता हूँ,अपने उस खबीर से.........

 

खबीर =इश्वर


आदर्श शायरी बहुत कर के अब भी यही मलाल है,
शेर खुद के क्यूँ न हुए गालिबो मीर से ...........

 

 

आदर्श

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ