ये वक़्त कुछ और है,वो वक़्त कुछ और था,
हरेक जुबां पर जब सिर्फ सच का ठौर था .......
कुछ जरूरतों व मुगालतों ने बिखरा दिया है,कुनबों को,
कहाँ मिलजुल के रहने का भी इक अनोखा दौर था....
शजर भी खोया खोया रहता है,अपनी उम्र की बेबसी पर
बच्चे भी तब तक करीब आये,जब तलक लगा बौर था.......
मांग के लायी भीख माँ ने जो खोली बच्चों के सामने ,
नज़रें सवालिया उठी सबकी,खाने को सिर्फ एक ही कौर था......
किसी जरूरत मंद की मदद को मेरे अपने ही होते खफा रहे,
उनके जिदों के सेलाब में तेरना निकलना ही अपना तौर था.........
दर्द कितना भी हो,हमेशा रख्खी हमने आदर्श होंटों पे हंसी,
दुनिया को उलझाया लबों में , छुपाया जो काबिले गौर था ....
आदर्श
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