जब से आंखे हैं खोली इस संसार में |
सीखा मैंने सांस लेना तेरी छाँव के प्यार में ||
फिर क्यूँ लगाया दाग मैंने उसी पर |
किया भरोसा ताउम्र जिस पर ||
कर दिया मैंने उसी आँचल को तार तार |
क्यूँ नहीं काँपे मेरे हाथ होके शर्मसार ||
वो एक नारी ही थी जिसने मुझे जनम दिया |
क्यूँ भूल गया मैं, के क्या कुछ उसने मेरे लिए किया ||
मेरी प्यारी बहना, लाया था उसके लिए कंगना,
कितनी ख़ुशी थी उसकी आँखों में |
फिर क्यूँ भूल गया मैं के मेरे ही हाथों से,
एक बहन ही तो मिल रही थी राखों में ||
जब मैं घर से निकलता, एक मधुर आवाज |
घुलती मेरे कानों में, जैसे सरगम का साज ||
वो थी मेरी पत्नी, थी तो एक नारी |
पर जिसने मुझे संभाला, मुझे लगी अबला बेचारी ||
क्या उसके सपने नहीं होंगे, नहीं होगा कुछ ख़्वाब |
मुझे क्या पता, दो घूंट पीके बन जाता मैं नवाब ||
जिस आग से उसने मुझे रोटी खिलाई |
उसी आग से, दहेज खातिर उसकी चिता जलाई ||
क्यूँ भूल गया मैं...
क्यूँ भूल गया मैं...
क्या रह गया यही सम्मान दुनिया की नजरों में |
एक नारी का, उसके नारीत्व का,
बाहर ही नहीं पहले तो घरों में||
इन आँखों में जब मैं देखता मन को शांत कर |
कितनी खुशियाँ हैं बांटती ये आँखे, झोली भर कर ||
फिर क्यूँ भूल जाता हूँ मैं, जब होता इनमे दर्द |
आंसुओं को देते, क्या इसी वास्ते कहलाते हम मर्द ||
क्या स्वर्णिम इतिहास था वो, हाँ सच में |
गार्गी और अपाला जैसी कन्याओं के युग में ||
आज हमारी सोच जो है, वो हो गई आधुनिक |
बनते कितने डाक्टर, इंजीनियर और वैज्ञानिक ||
पर एक जिस्म को सिर्फ जिस्म समझने की भूल |
ये जो घट रहा है उसका यही कारण है मूल ||
मैंने जो की है खताएँ, उससे सीख, एक वाक्य बनाया हित का |
चाहे हो स्त्री वो या हो पुरुष,
घटेगा ये सब बार बार,
जब तक इस दुनिया में, नहीं होगा सम्मान नारीत्व का ||
Akhilesh Verma
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