Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
Administrator

क्यूँ भूल गया मैं...

 

जब से आंखे हैं खोली इस संसार में |

सीखा मैंने सांस लेना तेरी छाँव के प्यार में ||

 




फिर क्यूँ लगाया दाग मैंने उसी पर |

किया भरोसा ताउम्र जिस पर ||

 




कर दिया मैंने उसी आँचल को तार तार |

क्यूँ नहीं काँपे मेरे हाथ होके शर्मसार ||

 




वो एक नारी ही थी जिसने मुझे जनम दिया |

क्यूँ भूल गया मैं, के क्या कुछ उसने मेरे लिए किया ||

 




मेरी प्यारी बहना, लाया था उसके लिए कंगना,

कितनी ख़ुशी थी उसकी आँखों में |

फिर क्यूँ भूल गया मैं के मेरे ही हाथों से,

एक बहन ही तो मिल रही थी राखों में ||

 

 



जब मैं घर से निकलता, एक मधुर आवाज |

घुलती मेरे कानों में, जैसे सरगम का साज ||

 

 




वो थी मेरी पत्नी, थी तो एक नारी |

पर जिसने मुझे संभाला, मुझे लगी अबला बेचारी ||

 






क्या उसके सपने नहीं होंगे, नहीं होगा कुछ ख़्वाब |

मुझे क्या पता, दो घूंट पीके बन जाता मैं नवाब ||

 




जिस आग से उसने मुझे रोटी खिलाई |

उसी आग से, दहेज खातिर उसकी चिता जलाई ||

 

 

क्यूँ भूल गया मैं...

क्यूँ भूल गया मैं...

 




क्या रह गया यही सम्मान दुनिया की नजरों में |

एक नारी का, उसके नारीत्व का,

बाहर ही नहीं पहले तो घरों में||

 




इन आँखों में जब मैं देखता मन को शांत कर |

कितनी खुशियाँ हैं बांटती ये आँखे, झोली भर कर ||

 




फिर क्यूँ भूल जाता हूँ मैं, जब होता इनमे दर्द |

आंसुओं को देते, क्या इसी वास्ते कहलाते हम मर्द ||

 




क्या स्वर्णिम इतिहास था वो, हाँ सच में |

गार्गी और अपाला जैसी कन्याओं के युग में ||

 




आज हमारी सोच जो है, वो हो गई आधुनिक |

बनते कितने डाक्टर, इंजीनियर और वैज्ञानिक ||

 




पर एक जिस्म को सिर्फ जिस्म समझने की भूल |

ये जो घट रहा है उसका यही कारण है मूल ||

 

 

मैंने जो की है खताएँ, उससे सीख, एक वाक्य बनाया हित का |

चाहे हो स्त्री वो या हो पुरुष,

घटेगा ये सब बार बार,

जब तक इस दुनिया में, नहीं होगा सम्मान नारीत्व का ||

 

 

Akhilesh Verma

 

 

Powered by Froala Editor

LEAVE A REPLY
हर उत्सव के अवसर पर उपयुक्त रचनाएँ