ईश्वर की सबसे अनूठी कृति,
चौरासी लाख योनियों में विशिष्ट,
प्रकृति के पाँच तत्वो से बना,
मानव !
इस अनूठी कृति ने एक समाज रचा,
अन्य जीव जंतुओं से उपर उठकर,
अपनी श्रेष्टता जताने खातिर,
प्रकृति के नियमों के बिपरीत चलकर
प्रदूषित किया बातावरण को |
ईश्वर की सबसे अनूठी कृति,
चौरासी लाख योनियों में विशिष्ट,
प्रकृति के पाँच तत्वो से बना,
मानव !
इस अनूठी कृति ने एक समाज रचा,
अन्य जीव जंतुओं से उपर उठकर,
अपनी श्रेष्टता जताने खातिर,
प्रकृति के नियमों के बिपरीत चलकर
प्रदूषित किया बातावरण को |
शिष्टाचार छोड़, स्वार्थ सिद्धि के लिए,
अपने अंदर पनपे तत्वों में से,
"अहंकार" को पिता व लोभ को माता बनाकर,
एक विशाल आकृति को जन्म दिया
नाम दिया इसे - 'भ्रष्टाचार' |
शैशवकाल से इस आकृति ने,
अपने सम्मोहन से सभी को खींचा,
जिसने भी इसे एक बार देखा,
वह इसी का हो गया |
धीरे धीरे समाज के हर वर्गों में,
भ्रष्टाचार का हीं चर्चा होने लगा,
इसका गुणगान करते लोग न थकते,
असंभव कार्य भी इसके छत्रछाया में,
संभव होनें लगे |
झूठ सत्य और सत्य झूठ होने लगा,
यह और भी बलवान होने लगा |
यौवन अवस्था तक पहुँचते - पहुँचते,
अपने विकराल रूप से सभी को प्रभावित किया |
जन्म से मृत्यु तक,
प्रत्यक्ष से अप्रत्यक्ष तक,
स्कूल से कॉलेज तक,
विद्यार्थी से शिक्षक तक,
परीक्षा से परिणाम तक,
कार्यालय से सचिवालय तक,
भष्टाचार ने चाहने वालों को प्रफुल्लित किया |
अनगिनत लोगों को केवल सहारा हीं नहीं,
अपितु अपने शरणागती को,
मनचाहा वरदान दिया |
सुबह से शाम,
ईश्वर के बदले भ्रष्टाचार का नाम,
लेते हुए लोग जीने लगे.
भ्रष्टाचार के चाँदी के जूतों को
सर से लगाने लगे |
इनके कितने उच्च विचार थे,
ग़रीबी को नहीं देखना चाहते थे,
इसलिए! ग़रीबों के ग़रीबी को,
बाज की तरह नोचने लगे,
अपने चोट से हटाने का प्रयत्न करने लगे |
अगर किसी ने ग़रीबी में हीं रहना पसंद किया,
तो उस ग़रीब को हीं मिटा दिया
न रहेगा ग़रीब, न रहेगी ग़रीबी,
सब एक साथ खुशहाल हो जाएगें |
कितनी अच्छी भावना है इस भ्रष्टाचार की,
भला इसे मिटाने की हिम्मत किसमे है |
अब भारत से ग़रीबी मिटने वाली है,
भ्रष्टाचार के राज्य में,
सोने चाँदी की वर्षा होने वाली है |
ईमान की रोटी मंहगी हो गई है,
बेईमान का कलेवा सस्ता |
भ्रष्टाचार बूढ़ा होने से पहले,
देश को पंगु बना देगा,
कलयुग का अभयदान पाए जीता रहेगा,
देश को घुन की तरह खोखला करता जाएगा |
सभ्यता, संस्कृति व परंपरा को मिटाकर,
अपना बिगुल बजाते,
देश की आज़ादी को ठोकर लगाएगा,
राम, कृष्णा, पैगंबर की धरती को
ग्रहण लग जाएगा,
नरक की आँधी में समाज बह जाएगा,
बच जाएगा, काम क्रोध मद लोभ
अहंकार से सना ,
मानव का जीता जागता शव !
अपनी हीं कृति द्वारा स्वंय मारा जाएगा,
और उस पर आँसू बहाने बाला कोई न रहेगा |
जलचर खुश हैं, नभचर खुश हैं,
चौरसी लाख योनियाँ खुश हैं
क्योंकि उन्होने भ्रष्टाचार को
अभी तक नहीं देखा है,
प्रकृति के नियमों को नहीं तोड़ा है,
क्योंकि मानव से बलवान होते हुए भी,
मानव सा बुद्धिमान नहीं हुआ है,
अपने स्वार्थ के खातिर,
अपने समाज को नहीं बाँटा है|
मानव पशु न होते हुए भी
पशुओं से नीचे पहुँच चुका है,
बुद्धिमान होते हुए भी अपने कर्म से
घृणित बन गया है,
पशूता की सीमा को लाँघ चुका है
स्वच्छता को न जाने कहाँ भूल आया है |
अगर अब भी हम न संभले,
तो फिर जीने के लायक न रहेंगें,
अपने बंशजों को मुँह नहीं दिखला पाएगें,
राष्ट्र, समानता, एकता, अखंडता,
सब मिट जाएगें |
Alakh Sinha
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