नगरों, महानगरों में,
सड़कों, चौराहों में,
ब्याप्त है गुंजन |
शहरों के मुहल्लों में,
गावों के गलियों में,
रेलगाड़ी, जहाज़ों में,
जल में चलती यानों में,
ब्याप्त है गुंजन |
दौड़ती बाहनों में,
बढती हुई आबादी में,
फूलों के पंखुरियों में,
भवरों के गुनगुनाने में,
ब्याप्त है गुंजन |
गुंजन में ब्याप्त है 'प्रदूषण'|
लोग भागतें हैं,
हरी भरी वादियों में,
भीड़ भाड़ से बहुत दूर
जंगलो की ओर,
प्रकृति की गोद में,
राहत पाने को,
गुंजन से बचने |
फिर प्रकृति को छेड़कर
उसकी गोद सुनी कर
बसाते हैं नगर,
लगाते हैं मेला
आबादी का,
भीड़भाड़ का,
गुंजन हीं गुंजन|
फिर ब्यप्ता है
चारो ओर घुटन,
प्रदूषण हीं प्रदूषण,
और प्रदूषण में है
भयावह मौत
इंतजार करती,
अपने आगोश में लेने को
तैयार बैठी है
या यूँ कहें कि
हम बढ़ रहें हैं उस ओर
उससे गले मिलने को |
कहाँ गई प्रवृति मानव की ?
अतीत से सीखकर
वर्तमान में कुछ कर
भविष्य के लिए
खुशहाली देने की,
ऋषियों, मुनियों, पूर्वजों की
सीख पर पानी डाल,
क्या पाया आज का मानव ?
गुंजन की जाल में फंस,
भविष्य को किया अंधकारमय |
अब भी वक्त है
प्रकृति का कद्र करने का,
आदत डालने का
लगाकर वृक्ष, पौधे,
लाएँ हरियाली,
प्रकृति को अपने चारो ओर
प्रदूषण से अलग रखने का,
गुंजन से तौवा पाने का,
प्रदूषण को अलविदा कहने का |
Alakh Sinha
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