मत पूछो नदिया से कि कहाँ से वह आई है,
और जाना है उसे किस ओर,
जहाँ से, जैसे भी उसे मिलती है जगह,
वह चल देती है उस ओर।
निराकार, अविचल पथ पर बढ़ती रहती,
पर निरूद्देश्य नहीं,
जहाँ से भी निकलती, देती हरियाली,
और समृद्धि का उपहार।
भेद नहीं, शर्त नहीं, देती सबको
समान प्यार, फिर चाहे वो इंसा हो या,
फिर हो जंगली कोई जानवर।
क्यों सीख सकता नहीं मानव,
प्रकृति की इन नेमतों से ?
क्यों उतार सकता नहीं इंसा जीवन में
अपने इनकी तस्वीर ?
लेने से पहले देना सीखो और देकर,
फिर भूल जाना भी।
नदिया से सीखो बहना समय के साथ,
कल निर्मल, आज कलुषित।
गति धीमी भले हो गई, पर नहीं बदला व्यवहार,
न मानव पर उतारा गुबार ही।
जैसा बोया वैसा काटा मानव न,े
प्रदूषित कर नदियों को किया अपना ही नुकसान।
लौटा सके गर उनके निर्झर कल-कल निनाद को,
निश्चित है कि पाओगे कुछ कम अपने अवसाद का।
मानव हो तो समझो कि आये हो कहाँ से,
और जाना है तुम्हें किस ओर।
मत पूछो नदिया से कि कहाँ से वह आई है,
और जाना है उसे किस ओर।।
अलका ‘अलमिका‘
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