Swargvibha
Dr. Srimati Tara Singh
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आईना

 

आईना मुझको मुझी से दूर करता है
नजरों से गिरने को मजबूर करता है
ना जाने किस बात पे गुरूर करता है
मेरे सारे सपनों को चकनाचूर करता है
आईना मुझको खुद से ही दूर करता है

 

बचपन मे आईने मे अक्स बहुत भाताथा
आईने के सामने मै तो घंटो बिताताथा
मुझको मेरे चेहरे पेनूर नजर आताथा
मै अपनेआप मे मगरूर हो जाताथा
यादें मीठी ताजा वोजरूर करता है
लेकिन मुझको मुझी से दूर करता है

 

आईने ने मुझको जीना सिखाया
मुझको मुझी से बखूबी मिलाया
मुझमे एक ऐसा विश्वास जगाया
खिलती रही मेरी शारीरिक काया
लेकिन इक ऐसा समय भी आया
लिप्त कर गया मुझको मोहमाया
शायद इसीलिए वो हुजूर करता है
आईना मुझको मुझी से दूर करता है
नजरों से गिरने को मजबूर करता है

 

जब भी मै आईने के सामने था बैठता
अपने व्यक्तित्व पर थोड़ा सा था ऐंठता
लाड़ दिखाता मुझको और बिगाड़ता
सातवें आसमान पे हर पल चढ़ाता
आज वो ही ग्लानि से चूर करता है
आईना मुझको मुझी से दूर करता है
न जाने क्यों ऐसा हुजूर करता है
नजरों से गिरने को मजबूर करता है

 

अंतरात्मा पहले पाक नजर आती थी
आज देखो तो सिर्फ दाग नजर आता है
आईना मुझको यूं मुंह चिढ़ा जाता है
मुझको मेरा असली चेहरा दिखा जाता है
ना जाने क्यों वो ये कसूर करता है
आईना मुझको मुझी से दूर करता है
नजरों से गिरने को मजबूर करता है

 

 

अमरनाथ मूर्ती

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