तन्हा रात,
फिर किसका साथ,
जब अपनी परछाइयाँ ही गुम हुआ करती हैं।
तन्हा इन्सान,
फिर किसका अरमान,
जब अपनी ही नींदे अपने साथ दग़ा करती हैं।
तन्हा हर पल,
हर आज हर कल,
उम्मीदें भला कब किसीके साथ वफ़ा करती हैं।
तन्हा ये आलम,
ये मन्ज़र ये मौसम,
बस तन्हाई की लपटे ही दिल में उठा करती हैं।
- अम्बरीश कुमार श्रीवास्तव
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